नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
49. महर्षि जाजलि-बकोद्धार
हुआ क्या, यह मैं भी ठीक नहीं देख सका। उत्कल का यह बक देह इतना विशाल था कि नन्हे श्यामसुन्दर दोनों करों से उसकी चोंच खोलकर सरलतापूर्वक उसमें खड़े हो सकते थे। इससे बक का कुछ बिगड़ता नहीं था; किंतु जो वामन से पलार्ध में विराट बन जाते हैं, उनका दक्षिण कर कहाँ तक उठता गया होगा, कोई कैसे समझ सकता है। मैं केवल यह देख सका कि बक का शरीर द्विधा विदीर्ण हो गया है। जैसे तृण-पात्र निर्मित करने वाले एर का तृण चीर देते हैं, बक का देह चीर दिया गया था। दैत्य उत्कल का दिव्यीकरण हो गया। वह बक से हंस बनकर इन परम प्रभु के नित्यधाम की वापी का भूषण बनने जा चुका था। सबसे पहिले भगवान राम ने दौड़कर अपने अनुज को अंकमाल दी। बछड़े-बालक सब सचेत, सावधान, सुप्रसन्न दौड़े। सुरों की सुमन-वृष्टि की ओर किसी की दृष्टि नहीं गयी, न गगन में गूंजते गान को, स्तवन को किसी के श्रवण सुन रहे थे। बछड़े श्यामसुन्दर को सूँघ लेने को समुत्सुक थे। सखाओं में प्रत्येक कर, चरण, सर्वांग भली प्रकार देखने में लगा था कि कहीं कोई क्षत-चिह्न तो नहीं है। 'तू क्या देखता है?' हंसकर नन्दनन्दन ने भद्र के स्कन्ध पर दक्षिण कर रखा। भद्र ने वहीं इन्हें बैठने को विवश कर दिया था और अपने पटुके से बार-बार पोंछकर पादतल देख रहा था। भद्र का पटुका चरणों में लगे बक के रक्त के कारण कई स्थानों पर लाल हो उठा था। वैसे उसके नीले पटुके में यह रक्त-चिह्न चमक नहीं सका था। 'तेरे पद कितने लाल हो गये हैं!' भद्र को उत्तर देने का अवकाश नहीं था। वह चरण-तल में बहुत सावधानी से अँगुली सरकाता पूछ रहा था- 'तुझे कहीं पीड़ा होती है?' |
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