नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
46. साधु-सेवक-वत्स-चारण
वेत्र करों में उठा और गौरव कूदता गोष्ठ से निकल पड़ा। सहस्र-सहस्र गो-वत्स निकले उसके साथ और उनके पीछे यह चला सखाओं के संग अग्रज को साथ लिये गोपाल। वाद्यों के घोष, भेरीनाद, शंखनाद, गोपों की शृंगध्वनि, गोपियों का मंगलगान- सबको तो इसी समय सार्थक होना है। इस मध्याह्न में गगन मेघों से ढका है और नन्हे सीकरों के साथ गगन से सुमनों की झड़ी लगी है। ब्राह्मण स्वस्ति पाठ के साथ अक्षत-पुष्प निक्षिप्त कर रहे हैं। गोपियाँ लाजा-दूर्वाडकुर फेंक रही हैं। विप्र-पत्नियों ने आशीर्वाद की वर्षा प्रारम्भ कर रखी है। बालकों के पीछे मुझे अपने सहायकों के आगे चलने का सम्मान मिला है। सुरभियों का समूह है हमारे पीछे और उनके पीछे हैं गोप-गण। आज केवल ग्राम-सीमा तक जाकर लौटना है। बहुत विलम्ब हुआ है। कन्हाई बहुत सुकुमार है। थक गया होगा यह। लेकिन आज तो सब विधियों को इसी को पूरा करना है। व्रजराज के मना करने पर भी सब सखाओं का इसने स्वयं श्रृंगार किया था तो अब क्या मानेगा! मैं इसी चिंता में था कि मोहन बहुत थक गया होगा, इतने में वाद्य दो भागों में विभक्त हो गये। विप्रवर्ग दोनों ओर हो गया मार्ग के और मध्य से मोहन लौटा। सहस्रों रंग-बिरंगे बछड़े, सब अलंकृत, सबके कण्ठों में हीरक एवं पुष्पों की मालाएँ, सब उछलते-कूदते बालकों की ओर ही बार-बार लौटते हैं। श्याम लकुट उठाता है, तो सब सिर उठाकर उस लकुट को ही सूँघने लगते हैं। दाहिने राम, बायें श्रीदाम, पीछे भद्र, सुबल और सहस्रों बालकों का अलंकृत समुदाय है। गायों के खुरों से उड़ी धूलि अलकों पर, भाल पर, वक्ष पर छायी है। मेरा यह युवराज थक गया है। भाल पर स्वेद झलमला आया है। मुख अरुण हो उठा है। यह लौट रहा है। गोपों ने चाहा था कि गायों को वन में चरने ले जायँ; किंतु कन्हाई लौट रहा है तो वे वन में क्यों जायें? उनका उदर तो यवस से भरा है। सब लौट पड़ी हैं। सब बछड़ों के साथ भागकर मिल गयी हैं। गोपाल बना है आज कृष्ण तो सबका ही चरवाहा तो उसी को रहना चाहिये। हुंकार करती स्तनों से दुग्ध-धारा बहाती गायों के दुग्ध से मार्ग में बिछे सुमन, दूर्वादल, लाजा सब आर्द्र हो गये हैं- धुलते जा रहे हैं। |
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