नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
35. यमलार्जुन
हम दोनों देवर्षि के शाप से गोकुल में अर्जुन के पौधे के रूप में उत्पन्न हुए थे। तब शाप के समाप्त होने में केवल मानव के लगभग सौ वर्ष शेष रहे थे। इससे पूर्व तो हमें एक अर्जुन वृक्ष से एकाकार होकर उसके रस में रहना पड़ा। फिर उसके फल में बीज बने तब कहीं उग सके। महर्षि शाण्डिल्य की दृष्टि पड़ गयी और उनके आदेश से श्रीनन्दरायजी के पिता ने तभी हमको अपनी पौरिपर लगभग सटाकर लगा दिया, जब वे युवावस्था के प्रारम्भ में गोकुल की स्थापना कर रहे थे। 'ये दोनों वृक्ष देवशक्ति-संयुक्त हैं!' महर्षि शाण्डिल्य ने कहा था, उनकी दिव्य दृष्टि हमें देखते ही पहिचान गयी थी- 'इनका सम्मान-सेवा सबको अभीष्ट पूर्ति करेगी। ये गोष्ठ के रक्षक रहेंगे!' महर्षि वचन तो गोपों के लिए श्रुति-वाक्य हैं। गोपियाँ ही नहीं, ब्रजेश्वरी तक हमारी पूजा करती थीं। वे प्रतिदिन सांयकाल हमारे समीप प्रदीप रखती थीं। गोपियाँ मनौतियाँ करती थीं हमारे समीप और मानती थीं कि वे मनौतियाँ सफल होती हैं। हमें इस पूजा-श्रद्धा की आवश्यकता थी? हम उनकी पद-रज-प्राप्ति के पात्र बन गये थे, यह भी देवर्षि की दया से। पिता धनाध्यक्ष का हम पर स्नेह था। उनके यक्ष अज्ञात रूप से हमारी देखभाल करने आ जाते थे। वे गोपों की, गोपियों की, गायों की, समीप के वन की सेवा-सम्हाल करते रहें, यह तो उनका भी सौभाग्य ही था। हमारी सुरक्षा, सेवा, सिञ्चन के लिए तो गोप ही बहुत सावधान थे। हम शीघ्र बड़े हो गये थे। वैसे भी अर्जुन के वृक्ष सीधे, सघन, अत्युच्च होते हैं, हम तो बहुत बड़े थे। असाधारण उच्चता, मोटाई, सघनता हमें इस अकल्पित सम्मान तथा सौभाग्य ने दे दी, इसमें क्या आश्चर्य। गायें हमारी छाया में स्वच्छन्द बैठती थीं। वृषभ विश्राम करते थे। बछड़े-बछड़ियाँ उछलते-फुदकते थे। गोपों की गोष्ठी होती थीं और गोप बालक क्रीड़ा करते थे। हमें तो नन्दराय का भी शैशव स्मरण है। श्रावण में हमारी सुदृढ़ शाखाओं पर झूले डालकर जब गोपियाँ गाती हुई झूलती थीं- अलका में भी हमें उतना आनन्द कभी नहीं आया था। केवल कुछ वर्ष बहुत व्यथा के बीते- ग्रीष्म का ताप और शरद का शैत्य भी वैसी पीड़ा नहीं देता था। ये सब तो हमारी तप:साधना का साधन थे। हम दोनों ने पतझड़ कभी देखा ही नहीं। हम तो गोपों, गायों के शीत या ताप तथा मध्यम वर्षा में भी सुरक्षा देने में संलग्न थे; किंतु गोपियों ने मनौतियाँ जब प्रारम्भ कर दीं- 'उनके ब्रजराज को पुत्र प्राप्त हो!' बहुत व्यथा के वे दिन थे। हम सर्वथा असमर्थ हो गये थे। यक्षों द्वारा सन्देश पाने पर पिता ने कह दिया था- 'भगवान गंगाधर और भगवती हिमवान-सुता भी हँसकर मेरी प्रार्थना टाल गये, तब मैं कर क्या सकता हूँ।' |
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