नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
35. यमलार्जुन
वृक्षों के विशाल जीवन में वर्ष दिवस जैसे व्यतीत होते हैं। व्यथा के वे वर्ष भी व्यतीत हुए और परमपुरुष श्रीनन्दनन्दन के रूप में अवतीर्ण हुए। गोपियों को लगा कि उनकी मनौतियाँ सफल हुईं। हमें जितनी पूजा उस समय प्राप्त हुई, सुरेश को समस्त सृष्टि में किसी विशेष अवसर पर भी प्राप्त नहीं होती। हमारे उज्ज्वल तने गोपियों के करों के हरिद्रा कुंकम की छापों से बहुत ऊपर तक अंकित हो गये। हमें-सूत्र वेष्टित किया गया। मूल्यवान वस्त्रों से पूरा तना आच्छादित हुआ। इतना गौरवपूर्ण अलंकार यक्षेश्वरपुरी में अप्राप्य है। हमने वह भाद्रकृष्ण नवमी के प्रभात का आनन्दोत्सव देखा और फिर तो मंगलवाद्य, गोपियों का संगीत, गोपों का नृत्य अनेक बार हमारा स्वागत करने लगा। सुर अदृष्य गोकुल पधारते थे और स्पृहापूर्वक देखते थे हमारी ओर। पूतना, तृणावर्त आदि असुरों के उत्पात के भी हम साक्षी हैं। काकासुर अपने स्पर्श से हमें अपवित्र नहीं कर सका। हम पर तो काकभुशुण्डि सस्नेह बैठते हैं। अपना रात्रि-विश्राम-स्थान भी हमारी शाखा को ही बनाया था उन्होंने; किंतु हाय! अब उन्हें भी विवश होना पड़ा यहाँ आवास-परिवर्तन के लिए! कितना धन्य दिन था वह जब नन्दनन्दन एक कर में नवनीत लिये, घुटनों सरकते दूसरे कर के सहारे प्रथम बार पौरि तक पहुँचे थे! ऊँची देहली पार नहीं कर सकते थे तब। वहीं बैठे-बैठे हमारी ओर देखते रहे थे। देहली पार करने लगे तब तो सखाओं के साथ प्राय: हमारे समीप ही क्रीड़ा करते थे। अनेक बार माता रोहिणी अथवा मैया यशोदा को आती देखकर मेरी ओट में हो जाते थे। खड़े होने लगे तब तो दोनों कर फैलाकर हमारे तनों में-से किसी से चिपककर छिपते थे और फिर स्वयं अपना नन्हा सिर झुकाकर झाँकते इधर-से-उधर होते किलकारियाँ लेते थे। हमारे चारों ओर घूमते थे हँसते-दौड़ते और मैया, माता रोहिणी या कोई सखा पकड़ने दौड़ते थे। हमसे एक कर लगाकर अकेले अथवा सखाओं के साथ कितनी सीधी-उलटी परिक्रमाएँ की इन पुरुषोत्तम ने हम दोनों के तनों की। लेकिन बार-बार ये हमारी शाखाओं की ओर देखकर गम्भीर हो जाया करते थे। हम दोनों सहम उठते थे- 'अब गया-गया यह सौभाग्य!' देवर्षि के वरदान का- आप शाप कहना चाहें तो वैसा सही- उसका अन्तिम अंश भी सफल होना ही था। कब तक वह टलता रहता। मैया ने इन मुकुन्द को ऊखल से बाँधकर दामोदर बना दिया प्रभात-काल में ही। |
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