नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
28. विप्रर्षि कण्व
'अनन्तशायी! अन्तर्यामी! अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड-नायक प्रभु! मैं अकिञ्चन आपको क्या अर्पित कर सकता हूँ! यह जो कुछ आपके ही अनुग्रह से प्रस्तुत कर पाया हूँ, इसे स्वीकर करो!' मैं नेत्र बन्द करके प्रार्थना करने लगा- 'मैं आपका चरणाश्रित दरिद्रजन, मेरे इस नैवेद्य को स्वीकार करके मुझे सनाथ कर दो मेरे स्वामी।' मैं थोड़े क्षण प्रार्थना करता रहा। मध्य में जलार्पण के लिए मैंने दृष्टि खोली और देखकर चौंक पड़ा। नवघन-सुन्दर नन्दन्दन मेरे पात्र के समीप जमकर बैठा था। वह प्रसन्न-मुख भोजन कर रहा था। मैं अज्ञ क्या पहिचानता उन्हें! मेरे कण्ठ से निकल गया- 'अरे! तू कहाँ से आ गया यहाँ?' हाय! मेरे स्वामी साक्षात सनाथ करने मुझे पधारे थे और मैंने उनके भोजन में भी बाधा दी। वे कितने प्रसन्न थे। कैसे खिले कमलदल लोचनों से मेरी ओर देखा था उन्होंने। लगा कि उनकी दृष्टि कह रही हो- 'बहुत अच्छे हो तुम! बड़ा स्वादिष्ट भोजन बनाया है तुमने!' लेकिन उस समय तो महामाया ने मुझे अन्धा कर रखा था। मेरा स्वर यशोदा और नन्दराय ने एक साथ सुन लिया। दोनों द्वार से सटे ही खड़े थे कि मैं भोजन समाप्त करके पुकारूँ तो आकर आचमन करावें। दोनों एक साथ द्वार से भीतर आये। उन्होंने अपने पुत्र को देखा मेरे पर से पात्र के सम्मुख बैठे भोजन करते। 'तू कहाँ से आ गया यहाँ?' यशोदा के स्वर में रोष स्पष्ट था। अपनी मैया को इस प्रकार डाँटते, अपनी ओर झपटते आते देखकर वे उठे और भागे। नन्दराय के समीप से दौड़ते वे द्वार से निकल गये। जूठे मुख, जूठे हाथ मेरे स्वामी भाग गये और मैं अधम उन्हें अतृप्त जाते देखता रहा। इतना भी मुझसे नहीं कहा गया कि अब यह भोजन उच्छिष्ट तो हो ही गया है, बालक को शान्ति से खा लेने दो। नन्दराय दोनों हाथ जोड़े, सिर झुकाये, नेत्रों से अश्रु बहाते मेरे सम्मुख आकर काँपने लगे। यशोदा ने भरे-भरे कण्ठ से कहा- 'अवोध बालक है। आप इसका अपराध क्षमा कर दें! मैं अभी रसोई की पुन: सामग्री सजा देती हूँ।' |
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