नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
28. विप्रर्षि कण्व
वह गौरकुमार- मैं कितनी कठिनाई से बैठा रह सका, मैं ही जानता हूँ। मर्यादा का बन्धन, अपने तपस्वी ब्राह्मण होने का ध्यान, अपने यजमान की कन्या और उसके पति सम्मुख-कितना अटपटा होता यदि मैं हृदय की मान लेता। अकस्मात मन करता था कि उठकर गौरकुमार के छोटे अरुण, सुन्दर पदों पर अपना जटा-मण्डित-मस्तक रखकर उसके सामने साष्टांग पड़ जाऊँ भूमि पर। केवल पलार्ध एक स्थिति रही होगी। छोटे नवघन-सुन्दर शिशु ने अग्रज से आधे पल पीछे मेरे पदों पर-से मस्तक उठाया। मैंने उसके मुख की ओर देखा और देखता रह गया। पलकों तक को हिला पाना सम्भव नहीं रह गया। मैं तो अपने को ही विस्मृत हो गया उन्हें देखकर। सभी बालकों ने मेरे पदों पर मस्तक रखा होगा। वे सब शीघ्र वहाँ से भाग गये। वे चले गये तब मुझे अपनी-अपने शरीर की सुधि आई। मन में ग्लानि हुई- मुझ एकान्तवासी तपस्वी में शिशुओं के सौन्दर्य पर मुग्ध होने की दुर्बलता क्यों? अपने को मैंने पूरी शक्ति से कठोर बना लिया मन में। यही कठोर बना लेने की भूल मुझसे मेरे आराध्य की बार-बार अवज्ञा कराती रही। 'आप यमुना-स्नान कर लें! तब तक मैं आपके नैवेद्य प्रस्तुत करने की व्यवस्था कर देती हूँ।' यशोदा मेरे यजमान सुमुख की कन्या हैं। शैशव में मेरे पिता गृह में आने पर बहुत सेवा की है। मुझसे बोलने में इन्हें संकोच बालिका थीं, तब भी नहीं था। मेरी रुचि तथा नियम जानती हैं। मैं अपने हाथों ही अपने आराध्य के लिए नैवेद्य प्रस्तुत करता हूँ और मुझे मध्याह्न में फल, दूध, दही पर रहना प्रिय नहीं है। आराध्य को इस समय कच्ची रसोई बनाकर अर्पित करना प्रिय है मुझे। नन्दराय नवीन वस्त्र लिए खड़े थे। उन्हें अस्वीकार करने जितनी निष्ठुरता मुझसे कभी नहीं हो सकी। मैं उनके साथ यमुना-स्नान करने गया। मध्याह्न-संध्या करके लौटा। पूरा गोष्ठ अत्यन्त स्वच्छ कर दिया गया था। मेरी रसोई के लिए सब सामग्री सजा दी गयी थी। अग्नि प्रज्ज्वलित पाया मैंने। |
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