नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. महर्षि शाण्डिल्य-कुल परिचय
केवल एक आश्रम-धेनु नित्य-पूजन के लिए मैंने अपनी कुटिया के समीप रखना स्वीकार किया। यह कामधेनु-उसकी भी सेवा का कोई अवसर गोपों ने मुझे नहीं दिया। शाण्डिल्य की गायें तो प्रत्येक गोप के गोष्ठ में पर्याप्त अधिक थीं और उनका घृत सावधानी से मेरे समीप पहुँचाया जाता था। मुझे प्रत्येक पर्व पर वृहत यज्ञ करके ही उसे व्यय करना था। शीघ्र ही ऋषि-मुनि गण आकर मेरे आसपास बसने लगे। मैं चाहता था कि कम-से-कम यज्ञ के लिए घृत की उनकी सेवा मैं करता रहूँ; किंतु गोपों ने यह अवसर भी मुझे कभी नहीं दिया। वृद्ध गोपों से लेकर गोप-बालक तक हमारे आश्रमों की सेवा को सदा उत्सुक रहते थे। वे हाथ जोड़े अत्यन्त विनम्र मिलते थे और बहुत कम बोलते थे; किंतु आश्रम में कब, क्या, कैसी सेवा किसे आवश्यक है, यह उनमें-से बालकों को भी समझते विलम्ब नहीं होता था। मथुरा में वृष्णिवंशी देवमीढजी ने दो विवाह कर लिये थे। एक पत्नी इनकी क्षत्रिय-कन्या थीं। उनके पुत्र हुए शूरसेन। इन शूरसेनजी के पुत्र वसुदेवजी से भगवान वासुदेव का आविर्भाव हुआ। देवमीढजी की दूसरी पत्नी गोपकन्या थीं। उनके पुत्र हुए पर्जन्यजी। जब पर्जन्य युवक हुए और उनका विवाह गोपकन्या वरीयसी से हो गया, तब देवमीढजी ने अपने इस पुत्र को मथुरा के राजकीय सम्पर्ण गोधन को देकर गोकुल में रहने का आदेश दिया। तब से ही मथुरा के सिंहासन के साथ गो-धन नहीं रहा। यह गो-सम्पत्ति और उसके पालक गोपों के अधिपति होकर देवमीढजी ने यमुना के पार महावन में मथुरा के सामने ही अपना निवास बनाया। वह उनका निवास ही गोकुल था। मैं उन लोगों का पुरोहित बनकर गोकुल के पार्श्व में रहने लगा। मेरे आने के पश्चात पर्जन्य गोपराज की पत्नी वरीयसी ने पाँच पुत्र तथा दो कन्याओं को जन्म दिया। पुत्रों का नामकरण तो मैंने ही किया था- उपनन्द, अभिनन्द, नन्द, सत्रन्द, और नन्दन। इनमें-से अभिनन्द का दूसरा नाम महानन्द अधिक प्रचलित हो गया। नामों के इसी अनुकरण पर कन्याओं का नाम उनकी माता ने नन्दिनी और सुनन्दा रखा। |
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