नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. महर्षि शाण्डिल्य-कुल परिचय
मुझे श्रीहरि की नित्य सान्निध्य-प्राप्ता पावन पुरी मथुरा में भी रहने का आदेश नहीं था। स्त्रष्टा जानते थे कि मैं स्वभाव से अरण्यानी हूँ। नगर कितना भी पुनीत तीर्थ हो, मेरे उपयुक्त नहीं हो सकता था। यमानुजा भानु-नन्दिनी के कूल पर मथुरा के सम्मुख ही महावन में गोपों का आवास था गोकुल। मुझे यहीं आने का आदेश सृष्टिकर्त्ता का था। वत्स! मैं गोकुल में पहुँचते ही चौंक गया। ब्रह्मलोक से चला तो मन में था- धरा का कोई भी अञ्चल मेरे आश्रम से अधिक पुनीत नहीं हो सकता। वैसे परात्पर पुरुष के अवतीर्ण होने की सूचना ने मुझे पौरोहित्य के लिये प्रलुब्ध कर दिया था; किंतु मेरा मानस बहुत उलझन में था। भगवान श्रीहरी का अवतरण इस वैवस्वत मन्वन्तर की वर्तमान अट्ठासवीं चतुर्युगी के इसी द्वापरान्त में मथुरा में होना है, यह बात सुरों में तथा महर्षियों में सबको ज्ञात थी। उस यदुकुल के पौरोहित्य को प्राप्त करने का सौभाग्य आशुतोष प्रभु प्रसन्न होकर अपने साक्षात शिष्य महर्षि गर्ग को दे चुके थे। अब प्रजापति ब्रह्मा ने मुझे गोपों के पौरोहित्य का आदेश देकर जो आश्वासन दिया था, उसका क्या अर्थ था, मैं समझ नहीं पाता था। मैं अपने मनो-मन्थन में मग्न न होता तो बहुत पहिले चौंकना चाहिए था मुझे। गोकुल की यह भूमि-यह ब्रजधरा क्या मर्त्यलोक का अंश है? यह अणु-अणु में आपूरित चिन्मय भाव-मैं कब तक वहीं समाधिस्थ बैठा रहा, मुझे स्मरण नहीं। मेरे अपने हिमगिरि के तपोवन की तो मुझे स्मृति कहाँ से आती। ब्रह्मलोक जहाँ से मैं अभी-अभी आया था, वह तुच्छ लगा मुझे। यह श्रीहरि का साक्षात धाम धरापर आ गया है, मुझे अब तक पता नहीं था। इस दिव्यधाम में रहनेवाले किसी श्वपच का भी पौरोहित्य करने को मैं प्रस्तुत था, मुझे तो गोपनायक के पौरोहित्य का आदेश दिया गया था। |
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