व्यास द्वारा मरुत्त के पूर्वजों का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अश्वमेधिक पर्व के अंतर्गत अध्याय 4 में व्यास द्वारा मरुत्त के पूर्वजों का वर्णन हुआ है।[1]

युधिष्ठिर का प्रस्न

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- धर्म के ज्ञाता, निष्पाप महर्षि द्वैपायन! मैं राजर्षि मरुत्त की कथा और उनके गुणों का कीर्तन सुनना चाहता हँ। कृपया मुझसे कहिये।

व्यास द्वारा मरुत्त के पूर्वजों का वर्णन

व्यास जी ने कहा- तात! सत्ययुग में राजदण्ड धारण करने वाले शक्क्तिशाली वैवस्वत मनु एक प्रसिद्ध राजा थे। उनके पुत्र महाबाहु प्रसिद्ध के नाम से विख्यात थे। प्रसन्धि के पुत्र क्षुप और क्षुप के पुत्र शक्तिशाली महाराज इक्ष्वाकु हुए। राजन! इक्ष्वाकु के सौ पुत्र हुए, जो बड़े धार्मिक थे। प्रभावशाली इक्ष्वाकु ने उन सभी पुत्रों को इस पृथ्वी का पालक बना दिया। धनुर्धर वीरों का आदर्श था। भारत! विंश के कल्याणमय पुत्र का नाम विविंश हुआ। राजन! विविंश के पन्द्रह पुत्र हुए। वे सब-के-सब धनुर्विद्या पराक्रमी, ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी, दान-धर्मनारायण, शान्त और सर्वदा मधुर भाषण करने वाले थे। इन सबमें जो ज्येष्ठ था, उसका नाम खनीनेत्र था। वह अपने उन सभी छोटे भाइयों को बहुत कष्ट देता था। खनीनेत्र पराक्रमी होने के कारण निष्कण्टक राज्य को जीतकर भी उसकी रक्षा न कर सका; क्योंकि प्रजा का उसमें अनुराग न था। राजेंद्र! उसे राज्य से हटा कर प्रजा ने उसी के पुत्र सुवर्चा को राजा के पद पर अभिषिक्त कर दिया। उस समय प्रजावर्ग को बड़ी प्रसन्नता हुई। सुवर्चा अपने पिता की वह दुदर्शा, वह राज्य सेनिष्कासन देखकर सावधान हो नियमपूर्वक प्रजा के हित की इच्छा से सबके साथ उत्तम बर्ताव करने लगे। वे ब्राह्मणों के प्रति भक्ति रखते, सत्य बोलते, बाहर-भीतर से पवित्र रहते ओर मन तथा इन्द्रियां को अपने वश में रखते थे। सदा धम्र में लगे रहने वाले उन मनस्वी नरेश पर प्रजाजनों का विशेष अनुराग था। किंतु केवल धर्म में ही प्रवृत्त रहने के कारण कुछ ही दिनों में राजा का खजाना ख़ाली हो गया और उनके वाहन आदि भी नष्ट हो गये। उनका खजाना खली हो गया, यह जानकर सामन्त नरेश चारों ओर से धावा करके उन्हें पीड़ा देने लगे। उनको कोष और घोड़े आदि वाहन तो नष्ट हो ही गये थे। बहुसंख्यक शत्रुओं ने एक साथ धावा करके उन्हें सताना आरम्भ कर दिया। इससे राजा सुवर्चा अपने सेवकों और पुरवासियों सहित भारी संकट में पड़ गये।

युधिष्ठिर! सेना और खजाना नष्ट हो जाने पर भी वे आक्रमणकारी शत्रु सुवर्चा का वध न कर सके, क्योंकि वे राजा नित्य धर्मपरायण और सदाचारी थे। जब वे नरेश नगर वासियों सहित भारी विपत्ति में पड़ गये, तब उन्होंने अपने हाथ को मुँह से लगाकर उसे शंक की भाँति बजाया। इससे बहुत बड़ी सेना प्रकट हो गयी। राजन! उसी की सहायता से उन्होंने अपने राज्य सीमा पर निवास करने वाले सम्पूर्ण शत्रु नरेशों को परास्त कर दिया। इसी कारण से अर्थात कर का धमन करने (हाथ को बजाने) से उनका नाम करन्धम हो गया। करन्धम के त्रेतायुग के आरम्भ में एक कान्तिमान पुत्र हुआ, जो कारन्धम कहलाया। वह इन्द्र से किसी भी बात में कम नहीं था। उसे परास्त करना देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन था। उस समय के सभी भूपाल कारन्ध के अधीन हो गये थे। वह अपने सदाचार और बल के द्वारा उन सबका सम्राट हो गया था।[1] उस धर्मात्मा करन्धम कुमार का नाम अविक्षित था। वह अपने शौर्य के द्वारा इन्द्र की समानता करता था। वह यज्ञशील, धर्मानुरागी, धैर्यवान और जितेन्द्रिय था। तेज में सूर्य, क्षमा में पृथ्वी, बुद्धि में बृहस्पति और सुस्थिरता में हिमवान पर्वत के समान माना जाता था। राजा अविक्षित मन, वीण, क्रिया, इन्द्रिय संयम और मनोहिग्रह के द्वारा प्रजाजनों का चित्त संतुष्ट किये रहते थे। उन प्रभावशाली नरेश ने विधिपूर्वक सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था। साक्षात विद्वान प्रभु, अंगिरा मुनि ने ही उनक यज्ञ कराया था। उन्हीं के पुत्र हुए महायशस्वी, चक्रवर्ती, धर्मज्ञ राजा मरुत्त। जो अपने गुणों के कारण पिता से भी बड़े-चढ़े थे। उनमें दस हजार हाथियों के समान बल था। वे साक्षात दूसरे विष्णु के समान जान पड़ेत थे। धर्मात्मा मरुत्त जब यज्ञ करने को उद्यत हुए, उस समय उन्होंने सहस्रों सोने के समुज्ज्वल पात्र बनवाये। हिमालय पर्वत के उत्तर भाग में मेरु पर्वत के निकट एक महान सुवर्णमय पर्वत है। उसी के समीप उन्होंने यज्ञशाला बनवायी और वहीं यज्ञ-कार्य आरम्भ किया। उनकी आज्ञा से अनेक सुनारों ने आकर सुवर्णमय कुण्ड, सोने के बर्तन, थाली और आसन (चौकी आदि) तैयार किये। उन सब वस्तुओं की गणना असम्भव है। जब सब सामग्री तैयार हो गयी, तब वहाँ धर्मात्मा, पृथ्वीपति राजा मरुत्त ने अन्य सब प्रजापालों के साथ विधिपूर्वक यज्ञ किया।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-18
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 4 श्लोक 19-28

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