नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
23. महर्षि मार्कण्डेय–वर्षगाँठ
मैं कल्पान्तजीवी होऊँ; पर महर्षि शाण्डिल्य की कोई समता है सृष्टि में। सृष्टिकर्त्ता ने जो सौभाग्य अपने प्रिय पुत्र वशिष्ठ को प्रदान किया था, वही महर्षि शाण्डिल्य को सहज सुलभ हो गया है इस द्वापरान्त में। अब वे आवाहन करें मेरा तो मैं जाऊँ, इतनी अशिष्टता तो मुझे नहीं करनी चाहिये। भगवान सदाशिव गोकुल हो आये, तब से ही मैं उत्कण्ठित था; किंतु वह सुअवसर आज आया। मैं अनवसर आ जाता तो इतना सौभाग्य कैसे पा सकता था। आज नन्दनन्दन की वर्षगाँठ थी और इस अवसर का आराध्य तो मैं ही माना जाता हूँ। अत: मैं तो कब से इस दिन की प्रतीक्षा करता रहा था। ब्राह्ममुहूर्त में संक्षिप्त नित्यकर्म समाप्त करके मैं हिमवान के अंक में पुष्पभद्रा के पावन तट पर अपने अमर्त्य आश्रम से गोकुल चल पड़ा गगन मार्ग से। वहाँ पहिले पहुँचकर कुछ काल मुझे आकाश में ही अदृश्य रहना था, जिससे महर्षि शाण्डिल्य तथा व्रजराज को कोई असुविधा मेरे अकस्मात पहुँचने के कारण न हो। भाद्रपद का कृष्ण पक्ष है। अष्टमी तिथि का चन्द्र प्रात: दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था और गगन अत्यन्त निर्मल था। मैं गोकुल पहुँचा और देखता रह गया। मैंने स्वर्ग ही नहीं, ब्रह्मलोक भी देखा है और जब भगवान बालमुकुन्द ने मुझे अपने उदर में आकृष्ट कर लिया था, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड देखे थे मैंने; यह तो मेरा देखा गोकुल- व्रज-मण्डल नहीं है। यह दिव्य-धरा, यह अकल्पनीय शोभा, सम्पत्ति और ये पक्षी, पशु, स्त्री-पुरुष- यह तो सृष्टि में कहीं नहीं देख सका था मैं। मैं परात्पर पुरुष की परम दिव्य पुरी में पहुँच गया हूँ, यह स्मरण करके मैंने वन्दना की गगन-से ही। यहाँ का तो अणु-अणु वन्दनीय है और लीलामय की विडम्बना यह कि मुझे पूजा स्वीकार करनी थी आज यहाँ के अधीश्वर की। भगवान बालमुकुन्द- वही श्याम श्रीअंग; किंतु सौन्दर्य, माधुर्य, मृदिमा शत-सहस्र-गुणित हो गयी है। अब ये चलने लगे हैं, बोलने लगे हैं। काली घुँघराली अलकों में घिरे चन्द्र-मुख से कुछ बोलते हैं तो श्रवणों में सुधा धारा प्रविष्ट होती है। भाल पर कज्जल-बिन्दु, नेत्रों में अञ्जन, कण्ठ में मुक्तामाल के मध्य व्याघ्र नख और कौस्तुभ, वक्ष पर श्रीवत्स-चिह्न- मैया यशोदा ने दक्षिण बाहु की कलाई में कंकणों के पास एक नन्हीं-सी पोटली बाँध दी है आज पीतपट में। इसमें नीम, गुग्गल, सरसों, दूर्वा और गोरोचन होगा। ये वाम कर से इसे टटोल रहे हैं। माता कहती हैं-'लाल! इसे मत खोलना! आज तुम्हारी वर्षगाँठ है।' 'दाऊ को बाँध!' अब ये मैया से कितने आग्रह से कहते हैं कि 'भद्र, विशाल, अर्जुन, ॠषभ सबके करों में बाँध पोटली। सबकी वर्षगाँठ होगी। सब पूजन करेंगे।' |
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