महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
युद्ध की ओर
सूर्यवंशी राजा आज के अरब, ईराक, मिस्त्र, यूनान और कश्यप सागर से लेकर जापान तक राज्य करते थे। ईराक की सूर्यवंशी शाखा के सम्राट सागर या सरगोंन ने सूर्यास्त के द्वीप यानि आधुनिक ब्रिटेन और आयरलैण्ड तक को जीता था। ईराक में इसके प्राचीन लिखित प्रमाण मिले हैं। एक अंग्रेज विद्वान ने तो यहाँ तक सिद्ध किया है कि ब्रिटेन का शुद्ध नाम भरत है और उनकी सिंह त्रिशूल धारणी ब्रिटानियां देवी और कोई नहीं है, बल्कि हमारी भारतीय देवी दुर्गा ही हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि राजा सम्राट अपने राज्य के व्यापार वृद्धि के लिए आपसी संगठन और समझौते चाहा करते थे। छोटे राजा महाराजा सदा किसी बड़े शक्तिशाली सम्राट के साथ जुड़कर अपने राज्य और व्यापार की रक्षा करते थे। हस्तिनापुर का कौरव वंश ऐसे शक्तिशाली संगठन का काम कई पीढ़ियों से कर रहा था। जब वही वंश आपस में बैर साधकर फूटा तो उस सारे भूखण्ड में जिससे उनका सम्बन्ध था खलबली मच गयी। श्रीकृष्ण इन बातों को खूब समझते थे। वे बड़े दिल और बड़े दिमाग वाले थे। उन्होंने सोचा कि अगर यह युद्ध हुआ तो बहुत बड़ा महानाश होगा। यह युद्ध सारे उत्तर भारत में फैलेगा, सैकड़ों मोर्चों पर लड़ाइयां छिड़ेंगी। अशान्ति में न तो खेती-पांती हो सकेगी और न ही व्यापार। न अमीर सुरक्षित रहेंगे और न गरीब। इस युद्ध में हार जीत चाहे किसी पक्ष की हो पर दुनिया बहुत मरेगी। शोक और बीमारियां बढ़ेंगी। श्रीकृष्ण ने सोचा कि एक बार कोशिश करके अवश्य ही देखना चाहिए, यदि यह युद्ध रुक सके तो भली बात होगी और यदि न रुके तो कम-से-कम इस तरह से संचालित हो कि अंत में पाण्डव ही जीतें। उनकी नीतियों पर चलकर ही सुखद संसार का निर्माण हो सकता है। धृतराष्ट्र और पाण्डु के बेटों की राजनीति में अन्तर यह था कि कौरव बड़े तानाशाहों के साथ मिलकर छोटे-छोटे गणतंत्रों और राज्यों को कुचलते थे। इसके विपरीत पाण्डव उनकी रक्षा करते थे। पाण्डव अपनी शक्ति से दुष्ट राजों और लुटेरों का दमन करते थे। श्रीकृष्ण भी यही चाहते थे कि युद्ध हो तो उसके परिणाम बहुजन के लिए सुखद भी सिद्ध हों पर जहाँ तक हो सके वहाँ तक इस युद्ध को होने से रोका जाय। हर तरह से संसार का कल्याण विचार कर श्रीकृष्ण द्वारिका से चले। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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