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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
सुभद्रा और अर्जुन का विवाह
श्रीकृष्ण ने अर्जुन की बात का समर्थन किया और सारी बातें महाराज युधिष्ठिर को कहला भेजीं। धर्मराज युधिष्ठिर ने सब बातों पर विचार करके यह उत्तर दिया कि मैं सहमत हूँ। कृष्ण और अर्जुन हरणनीति का प्रयोग कर सकते हैं। पुराने समय में द्वारका से आज की दिल्ली यानी उस समय के इन्द्रप्रस्थ तक एक मनुष्य के पहुँचने में पन्द्रह-बीस दिन लग सकते थे। मगर सन्देशों के आने-जाने में मुश्किल से आठ-दस दिन लगा करते थे। सन्देसिया रास्ते की नियत चौकियों पर अपना घोड़ा बदलता और फिर अगली चौकी के लिए चल पड़ता। इस प्रकार उनकी गति में बड़ी तेजी आ जाती थी। लिखित सन्देश तो और भी जल्दी पहुँचते थे। एक हरकारा पूरी तेजी से एक कोस दौड़कर दूसरे के हरकारे को चिट्ठी थमाता था और वह तुरन्त वहाँ से अगले कोस की दौड़ लगा देता था। यूं कोस-कोस पर नए दौड़ने वालों का सहारा लेकर गुजरात की खबर दिल्ली तक चार दिन में पहुँच जाती थी। कृष्ण के संदेसिये स्वयं पहुँचने में एक या दो-तीन दिन अधिक ले लिए। और इस प्रकार रैवतक का मेरा रहते तक धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा अर्जुन को मिल गई। एक दिन जब सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवी पूजा करने जाने वाली थीं तो कृष्ण ने अर्जुन को अपना रथ और सारथी दे दिया तथा सारथी को यह आज्ञा दे दी कि महाबली अर्जुन जो कहें सो करना। महाबली अर्जुन कृष्ण के रथ पर चढ़कर देवी के मन्दिर पहुँचे और सुभद्रा जैसे ही मन्दिर से दर्शन करके बाहर निकली कि अर्जुन ने उसे अपनी बांहों में उठा लिया और रथ की ओर दौड़ पड़े। वहाँ सभी अर्जुन को जानते थे और उनसे ही ऐसा काम हुआ तो एक बात तो दास-दासियों, सारे लोग भौंचक्के खड़े रह गये। पर अर्जुन जब वसुदेव की बड़ी दुलारी कन्या को रथ पर बैठा कर ले भागा तो उन्होंने हल्ला मचाना आरम्भ किया। कुछ ही देर में इस दुर्घटना की खबर सारे यादवों के बीच में बिजली की तरह दौड़ गई। कृष्ण के सौतेले बड़े भाई बलराम तो एकदम क्रोध में आग बबूला हो उठे जब यह पता चला कि अर्जुन सुभद्रा को श्रीकृष्ण के रथ पर हर ले गए हैं तो यादवों के बड़े-बड़े नेता श्रीकृष्ण के पास आये। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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