भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
शन्तम करों से अर्थात जो स्वयं परम सुखरूप हैं और दूसरों को सुख प्रदान करने वाले हैं उन भगवद्गुणगानादि से भक्तों का शोक निवृत्त करता हुआ उदित हुआ। इस प्रकार यह भजनानन्दरूप चन्द्र का उदय समस्त शोकों की निवृत्ति करने वाला है, क्योंकि जिस समय जीव भगवद्भजन में प्रवृत्त है उसी समय उसके सारे पाप-ताप नष्ट हो जाते हैं।
यह मनरूप मत्तगजेन्द्र संसारनल में जल रहा है; जिस समय यह भगवद्भजन में लगता है उसी समय मानो शीतल गंगाजल में अवगाहन करने लगता है। अब यह विचार करना चाहिये कि ये जो भजनानन्द चन्द्र, भक्तिरूपा प्रभा और गुणगान वितानादिरूप शन्तम कर हैं इनमें भेद क्या है? क्योंकि बिना भेद के कोई व्यवहार नहीं हो सकता। वस्तुतः भगवद्भक्तिरूपा प्रभा और भगवदीय गुणगणगानतानादि भजनानन्द चन्द्र के अन्तर्गत ही हैं। इनका भेद ‘राहोः शिरः’ के समान केवल व्यवहार के लिये है। यद्यपि राहु का शिर राहु से कोई पृथक् पदार्थ हो ऐसी बात नहीं है; तथापि लोक में इसका इस प्रकार सम्बन्ध-ग्रहणपूर्वक व्यवहार अवश्य होता है। जैसे ‘देवदत्त हाथों से वृक्ष काटता है’ इस वाक्य में ‘देवदत्त’ कर्ता है और ‘हाथ’ करण हैं। इसलिये इन दोनों में भेद होना चाहिये। परन्तु वस्तुतः देवदत्त क्या है? वह हाथ, पाँव, शिर आदि का संघात ही तो है। वह अवयवी है और हाथ-पाँव आदि उसके अवयव हैं। नैयायिकों के मतानुसार अवयव कारण होता है और अवयवी उसका कार्य होता है। लोक में कार्य अपने कारण के द्वारा ही सारे व्यापार किया करता है। इसलिये अवयवी में मुख्यता का व्यपदेश होता है और अवयव में गौणता का। इसी प्रकार भक्तिरूपा प्रभा और भगवद्गुणगानरूप किरणें अवयव हैं तथा भजनानन्द चन्द्र अवयवी हैं। अतः भजनानन्द कार्य है और भक्ति तथा भगवद्गुणगानादि उसके कारण हैं। यह भजनानन्द चन्द्र हृदयारण्य को सुशोभित भी करता है; क्योंकि जहाँ चन्द्रालोक का विस्तार नहीं होता वह स्थल रमण के योग्य भी नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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