भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी प्रकार जिस हृदय में भजनानन्द चन्द्र की भक्तिरूपा प्रभा का विस्तार नहीं हुआ है वह भगवान् का रमण-स्थल होने योग्य भी नहीं है। तथा वह भजनानन्द चन्द्र और क्या करते हुए उदित हुआ?- “प्राच्याः-प्राचि भवा प्राची तस्याः बुद्धेः मुखं सत्त्वात्मकं प्रधानं भागं अरुणेन कुकुंमेनेव रागेण विलिम्पन्।” अर्थात वह प्राची यानी अपने से पूर्व उत्पन्न हुई बुद्धि के सत्त्वमय प्रधान भाग को, अरुण कुंकुम द्वारा मुख लेपन के समान, अनुरक्त करता हुआ उदित हुआ। यही भजनानन्द चन्द्र का कार्य है। जिस प्रकार अग्नि से पिघले हुए लाख में रंग भर देने पर वह उसी रंग का हो जाता है उसी प्रकार यह बुद्धि के सत्त्वात्मक भाग को द्रवीभूत करके उसमें भगत्स्वरूपरूपी रंग भर देता है। इससे वह बुद्धिसत्त्व भगवन्मय हो जाता है और फिर किसी समय उसे भगवान् की विस्मृति नहीं होती तथा वह भजनानन्द चन्द्र है कैसा?- “ककुभः-कं सुखं तद्रूपतया कुषु कुत्सितेष्वपि भाति शोभत इति ककुभः।” ‘क’ सुख को कहते हैं। वह सुखरूप से कुत्सितों में भी भासमान है इसलिये ‘ककुभ है। उस भजनानन्द चन्द्र का आलोक पड़ने पर तो चाण्डाल भी कृतकृत्य हो सकता है, यथा- “अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान् यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम्। अर्थात हे प्रभो! जिसकी जिह्वा पर आपका नाम विराजमान है वह श्वपच भी इन (भक्तिहीन द्विजों) की अपेक्षा श्रेष्ठ है। जो आपका नामोच्चारण करते हैं उन महानुभावों ने तो सब प्रकार के तप, होम, स्नान और वेदपाद कर लिये। यही नहीं, आपके नामों का श्रवण या कीर्तन करने से तथा कभी आपको प्रणाम या स्मरण कर लेने से चाण्डाल भी शीघ्र ही सवन-कर्म का अधिकारी हो सकता हैः फिर हे भगवन! जिन्हें साक्षात् आपका दर्शन हुआ हो उनके विषय में तो कहना ही क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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