भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
मन का विकास ही मन का प्रसाद है और मन का प्रसाद होने पर ही भगवत्स्वरूप प्राप्ति होती है-
ऐसी जो मुमुक्षुरूपा प्रजा है उसे देखकर। अथवा यह भी तात्पर्य हो सकता है कि निष्काम कर्मरूप भगवदाराधन करने से-क्योंकि निष्काम कर्म ही सबसे पहला भगवदाराधन है-जिसमें शान्ति-दान्तिरूप पुष्प विकसित हो रहे हैं। ये पुष्प मुमुक्षुओं को अत्यन्त अपेक्षित भी हैं; जैसा कि कहा है- “शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्येत्।।” इस प्रकार निष्काम कर्म द्वारा साधनचतुष्टय सम्पन्न हुई प्रजाओं को देखकर उनके हृदयों में श्रुतियों का आह्वान कर उनके साथ रमण करने की इच्छा की; क्योंकि जो पुरुष भगवदाराधन द्वारा शुद्धान्तःकरण नहीं है उनके अन्तःकरण में श्रुतियों का ब्रह्मपरत्व निश्चित नहीं होता। अशुद्ध अन्तःकरण में ऐसा होना असम्भव है। अतः उन मुमुक्षुओं के अन्तःकरणों में उनका परम तात्पर्य निश्चय कर उनके साथ रमण करने का विचार किया। अथवा- “योगमायमुपाश्रितः”-यः अतामायां स्वस्मादगच्छत्सु गोपदारेषु या माया कृपा तां उपाश्रितः। अर्थात अपने पास से न जाने वाली गोपांगनाओं के प्रति (माया) कृपा का आश्रय लेकर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज