भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः जो ऐन्द्रियिक सुख हैं वे दुःख के ही हेतु और आद्यन्तवान् हैं, इसलिये बुद्धिमान् लोग उनमें सुख नहीं समझते। वे उनसे दूर ही रहते हैं। श्रीभगवान कहते हैं-
इन विषयों से सुख कभी नही मिल सकता। जिस प्रकार कडुए नीम या तुँबे से मधु, और बालू से तैल निकलना असम्भव है उसी प्रकार वैषयिक भोगों से शान्ति की आशा रखना दुराशामात्र है। गोपांगनाओं ने भगवान के साथ अनन्तकोटि रात्रियों में रमण किया, किन्तु आखिर उन रात्रियों का भी अन्त तो हुआ ही। सुख में समय बीतते देरी नहीं लगती, जो पुरुष समाधिस्थ हो जाते हैं उन्हें सैकड़ों वर्ष एक क्षण के समान मालूम होते हैं। इसी प्रकार गोपांगनाओं को भी इतना दीर्घकालीन रमण इतना सुखप्रद नहीं हुआ जितना दुःखदायी उसका वियोग हुआ। इस बात को दिखाने के लिये ही परमकृपालु श्रीभगवान ने मुमुक्षुरूपा प्रजाओं को देखा। कैसी प्रजा? ‘ताः’-आश्चर्यरूपा, क्योंकि आत्मजिज्ञासा आश्चर्यरूपा ही होती है-‘आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्।’ अतः वे मुमुक्षुरूपा प्रजा विलक्षण ही हैं। और कैसी हैं? ‘रात्रीः’ यानी ठीक रात्रि के अन्धकार के समान आत्मस्वरूप का आच्छादन करने वाले अज्ञानरूप अन्धकार से व्याप्त हैं। यदि कहो कि नहीं, वे तो विवेकसम्पन्ना हैं तो यहाँ भी ‘रात्रीः’ पद से ‘रा दाने’ इस धात्वर्थ के अनुसार दानादिपरा यह अर्थ समझना चाहिये। और कैसी हैं?- “शरदोत्फुल्लमल्लिकाः”-शरदा भगवदुपासनात्मकेन निष्कामकर्मणा उच्चैः फुल्लानि विकसितानि अन्तःकरणात्मकानि कमलकुड्मलानि यासाम्। अर्थात शरद् ऋतु में जैसे कमल विकसित होते हैं उसी प्रकार निष्काम कर्मयोग के द्वारा जिनके अन्तःकरणरूप कमलकोश अत्यन्त विकसित हो रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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