भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री विष्णु-तत्त्व
श्रीभागवत में श्रीकृष्ण प्रदर्शित विभूतियों में ब्रह्मा को अपरिगणित विष्णु परिलक्षित हुए थे और उन सभी को मूर्ति-मान चतुर्विशति तत्त्वों से उपासित बतलाया है और सभी को सत्यज्ञाना नन्तनन्दैकरस बतलाया है-
अर्थात- वे सभी स्वरूप सत्यज्ञानन्तानन्दैकरसमूर्ति ही हैं। जैसे शैत्य के कारण निर्मल जल ही बर्फ बनता है, वैसे ही विशुद्ध सत्त्व के कारण निर्मल निर्विकार, एक रस ब्रह्म की उन मूर्तियों के रूप में व्यक्त है। पुनश्च, वे ऐसे महामहिम वैभवशाली स्वरूप थे, जिनमे बहुत से माहात्म्यों को और तो क्या, उप-निषद्दर्शी भी नहीं स्पर्श कर सकते। ठीक ही है, भगवान के अनन्त माहात्म्य को सामस्त्येन कोई भी नहीं जान सकता। अनन्त होने से भगवान भी उनका अन्त नहीं पा सकते। ‘‘ते ब्रह्मलोकेषु परानतकाले’’ इस श्रुति में ‘‘ब्रह्मलोकेषु’’ इस बहुवचन से यहाँ मालूम पड़ता है कि सविशेष ब्रह्मलोक एक ही नहीं, किन्तु बहुत है। दूसरे यह भी मालूम पड़ता है कि सर्वमूर्धन्य सर्वोत्कृष्ट लोक ही शैवों को परम शिवलोक के रूप में, वैष्णवों को परम वैकुण्ठ के रूप में, कृष्ण भक्तों को गोलोक धाम के रूप में, राम भक्तों का साकेत धाम के रूप में परमशाक्तों को मणिद्धीप के रूप में भासमान होता है। सगुण, सविशेष ब्रह्म के उपासको की उनके इष्टदेव के रूप भासमान होता है वही निर्गुण विष्णुतत्त्व ज्ञानवालों को निर्विशेष ब्रह्म के रूप में प्रत्यक्ष होता है। |
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