वैष्णव सम्प्रदाय


संक्षिप्त परिचय
वैष्णव सम्प्रदाय
विष्णु प्रतिमा
विवरण 'वैष्णव सम्प्रदाय' हिन्दू धर्म में मान्य मुख्य सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय के लोग भगवान विष्णु को अपना आराध्य देव मानते और पूजते हैं।
अन्य नाम पांचरात्र मत, वैष्णव धर्म, भागवत धर्म
प्रारम्भ अनुमान है कि लगभग 600 ई.पू. जब ब्राह्मण ग्रन्थों के हिंसाप्रधान यज्ञों की प्रतिक्रिया में बौद्ध-जैन सुधार-आन्दोलन हो रहे थे, उससे भी पहले उपासना प्रधान वैष्णव धर्म विकसित हो रहा था, जो प्रारम्भ से वृष्णि वंशीय क्षत्रियों की सात्वत नामक जाति में सीमित था।
उपास्य देव वासुदेव
मान्य ग्रंथ श्रीमद्भगवद गीता
विशेष 'शतपथ ब्राह्मण'[1] के अनुसार सूत्र की पाँच रातों में इस धर्म की व्याख्या की गयी थी, इस कारण इसका नाम 'पांचरात्र' पड़ा। इस धर्म के 'नारायणीय', 'ऐकान्तिक' और 'सात्वत' नाम भी प्रचलित रहे हैं।
अन्य जानकारी भागवत धर्म भी प्रारम्भ में क्षत्रियों द्वारा चलाया हुआ अब्राह्मण उपासना-मार्ग था, परन्तु कालान्तर में सम्भवत: अवैदिक और नास्तिक जैन-बौद्ध मतों का प्राबल्य देखकर ब्राह्मणों ने उसे अपना लिया और 'वैष्णव' या 'नारायणीय धर्म' के रूप में उसका विधिवत संघटन किया।

वैष्णव धर्म या वैष्णव सम्प्रदाय का प्राचीन नाम 'भागवत धर्म' या 'पांचरात्र मत' है। इस सम्प्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव हैं, जिन्हें छ: गुणों ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज से सम्पन्न होने के कारण भगवान या 'भगवत' कहा गया है और भगवत के उपासक 'भागवत' कहलाते हैं। इस सम्प्रदाय की पांचरात्र संज्ञा के सम्बन्ध में अनेक मत व्यक्त किये गये हैं। 'महाभारत'[2] के अनुसार चार वेदों और सांख्ययोग के समावेश के कारण यह नारायणीय महापनिषद पांचरात्र कहलाता है। 'नारद पांचरात्र' के अनुसार इसमें ब्रह्म, मुक्ति, भोग, योग और संसार–पाँच विषयों का 'रात्र' अर्थात ज्ञान होने के कारण यह पांचरात्र है। 'ईश्वरसंहिता', 'पाद्मतन्त', 'विष्णुसंहिता' और 'परमसंहिता' ने भी इसकी भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या की है। 'शतपथ ब्राह्मण'[3] के अनुसार सूत्र की पाँच रातों में इस धर्म की व्याख्या की गयी थी, इस कारण इसका नाम पांचरात्र पड़ा। इस धर्म के 'नारायणीय', ऐकान्तिक' और 'सात्वत' नाम भी प्रचलित रहे हैं।

प्रारम्भ

यह अनुमान है कि लगभग 600 ई.पू. जिस समय ब्राह्मण ग्रन्थों के हिंसाप्रधान यज्ञों की प्रतिक्रिया में बौद्ध-जैन सुधार-आन्दोलन हो रहे थे, उससे भी पहले से अपेक्षाकृत शान्त, किन्तु स्थिर ढंग से एक उपासना प्रधान सम्प्रदाय विकसित हो रहा था, जो प्रारम्भ से वृष्णि वंशीय क्षत्रियों की सात्वत नामक जाति में सीमित था। वैदिक परम्परा का इसने सीधा विरोध नहीं किया, प्रत्युत अपने अहिंसाप्रधान धर्म को वेद-विहित ही बताया। इस कारण कि उसकी प्रवृत्ति बौद्ध और जैन सुधार-आन्दोलनों की भाँति खण्डनात्मक और प्रबल उपचारात्मक नहीं थी, इस सम्प्रदाय की वैसी धूम नहीं मची। ई.पू. चौथी शती में पाणिनि की अष्टाध्यायी[4] के सूत्र से वासुदेव के उपासक का प्रमाण मिलता है। ई.पू. तीसरी-चौथी शती से पहली शती तक वासुदेवोपासना के अनेक प्रमाण प्राचीन साहित्य और पुरातत्त्व में मिले हैं।

प्रचलन

जैनों के सलाक पुरुषों में वासुदेव और बलदेव भी हैं तथा अरिष्टनेमि और वासुदेव के सम्बन्ध का भी उल्लेख प्राचीन जैन साहित्य में मिलता है। बौद्ध जातकों[5] में वासुदेव की कथा कही गयी है। बौद्ध साहित्य के 'चुल्लनिद्देस' मे आजीवक, निगंठ, जटिल बलदेव आदि श्रावकों के साथ वासुदेव को पूजने वाले वासुदेवकों का भी उल्लेख हुआ है, जिससे सूचित होता है कि यह सम्प्रदाय तीसरी-चौथी शती ई.पू. में विद्यमान था। इसी काल में चन्द्रगुप्त मौर्य की राजसभा के यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने 'सौरसेनाई' (शौरसेनी) जाति में जो 'जोबेरीज' (यमुना) नदी के किनारे बसती थी और 'मेथोरा' (मथुरा) और क्लीसोबोरा (कृष्णपुर) जिसके प्रधान नगर थे, हेराक्लीज (कृष्ण) के विशेष रूप से पूजे जाने का उल्लेख किया है। 200 ई. पू. के वेसनगर (भिलसा) के एक स्तम्भ लेख के अनुसार बैक्ट्रिया के राजदूत हेलियाडोरस ने देवाधिदेव वासुदेव की प्रतिष्ठा में गरुड़स्तम्भ का निर्माण कराया था। वह अपने को भागवत कहता था। ई.पू. पहली शती के नाणेघाट के गुहाभिलेख में अन्य देवताओं के साथ संकर्षण और वासुदेव का भी नामोल्लेख है। इसी समय का एक और शिलालेख चित्तौड़गढ़ के समीप घोसुण्डी में मिला है, जिसमें कण्ववंशी राजा सर्वतात द्वारा अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर भगवान संकर्षण और वासुदेव के मन्दिर के लिए 'पूजाशिला-प्राकार' बनवाये जाने का उल्लेख है। मथुरा के एक महाक्षत्रप शोडास (ई.पू. 80-57) के समय के एक शिलालेख के अनुसार वसु नामक एक व्यक्ति ने महास्थान (जन्मस्थान मथुरा) में भगवान वासुदेव का मन्दिर बनवाया था। इन प्रमाणों से सूचित होता है कि भागवत धर्म का सबसे पहला नाम 'वासुदेव धर्म' या 'वासुदेवोपासना' है। भागवत नाम भी ई.पू. दूसरी-तीसरी शती में प्रचलित हो गया था। प्रारम्भ में यह उपासना-मार्ग शूरसेन[6] में बसने वाली सात्वत जाति में सीमित था, परन्तु इसका प्रचार कदाचित सात्वतों के स्थानान्तरण के फलस्वरूप ई.पू. दूसरी-तीसरी शताब्दियों में ही पश्चिम की ओर भी हो गया था तथा कुछ विदेशी (यूनानी) लोग भी इसे मानने लगे थे।

दक्षिण के प्राचीन तमिल साहित्य में वासुदेव, संकर्षण तथा कृष्ण के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। इन सन्दर्भों के आधार पर अनुमान किया गया है कि उपर्युक्त सात्वत लोग, जो वैदिक पुरूवंशक एक जाति विशेष के थे, मगध के राजा जरासंध द्वारा आक्रान्ता होने के कारण कुरुपांचाल के शूरसेन प्रदेश से पश्चिमी सीमान्त प्रदेश की ओर चले गये। मार्ग में इनमें से कुछ लोग पालव और उसके दक्षिण की ओर बस गये और वहीं से दक्षिण देश के सम्पूर्ण उत्तरी क्षेत्र तथा कोंकण में फैल गये। इन्हीं में से कुछ और दक्षिण की ओर चले गये। दक्षिण के अद्विया, अण्डार और इडैयर जातियों के लोग पशुपालक अहीर या आभीरों के समकक्ष हैं। सात्वत जाति भी पशुपालक क्षत्रियों की जाति थी। 'ऐतरेय ब्राह्मण' में दक्षिण के सात्वतों द्वारा इन्द्र के अभिषेक का उल्लेख मिलता है। यह मालूम होता है कि सात्वतों का दक्षिणगमन उससे पहले हो चुका था। वे अपने साथ अपनी धार्मिक परम्पराएँ भी अवश्य लेते गये होंगे।






टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शतपथ ब्राह्मण 13।6।1
  2. महाभारत, शान्तिपर्व (339:11-12
  3. शतपथ ब्राह्मण (13।6।1
  4. पाणिनि अष्टाध्यायी- वासुदेवार्जुनाभ्यां बुनृ (4।3।98
  5. घत और महा उमग्ग
  6. आधुनिक ब्रजप्रदेश

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