भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
‘अस्वरूपविदः’ अर्थात मैं शुद्ध-बुद्ध परब्रह्म हूँ ऐसा नहीं जानतीं अथवा जिन्हें मेरी परम प्रेमास्पदता का ज्ञान नहीं है; क्योंकि भगवान के साथ प्रेम सम्बन्ध हो जाने पर तो भक्त उन पर अपना अधिकारी समझने लगता है; तब तो भक्तवर बिल्वमंगल की तरह वह भी कहने लगता है-
फिर तो विवश हो जाने के कारण उसके हृदय से हरि कभी हटते ही नहीं।
जिस प्रकार पिघली हुई लाख में यदि हल्दी मिला दी जाय तो फिर उन दोनों का पार्थक्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार भक्त के द्रवीभूत मन से जब भगवान के स्वरूप का तादात्म्य हो जाता है तो उनका का विप्रयोग नहीं होता। फिर भक्तहृदय भगवान को नहीं भूल सकता और भगवान भक्त के हृदय को नहीं छोड़ सकते। उन गोपांगनाओं का भाव इतना प्रौढ़ हुआ था; इसी से वे अबला और अस्वरूपविद् थी; किन्तु उन्होंने भी ‘ब्रह्म मां परमं प्रापुः’-मुझ परब्रह्म को प्राप्त कर लिया। कौन ब्रह्म? ‘परमम्’-परा उत्कृष्टतमा अभिमता मा श्रीराधा यस्य तम्। अर्थात जिसको पराशक्ति मा[1] श्रीराधिका जी ही अभिमत हैं उस परमब्रह्म को प्राप्त कर लिया। यह अर्थ सख्यभाववती गोपांगनाओं के लिये अनुकूल ही है, क्योंकि श्रीवृषभानुसुता स्वाधीनभर्तृका होने के कारण मुख्य नायिका हैं; अतः वे ही भगवान की परम प्रेयसी हैं। शेष सब सखियाँ कान्तभावशून्य सख्यभाव वाली हैं; इसलिये वे उन सबकी भी सेव्य हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मीयते सेव्यते प्राप्यते ज्ञायते योगीन्द्रमुनीन्द्रैर्वेदैश्च या सा मा।
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज