भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जिस प्रकार मानिनी नायिका ऊपर से अनभिलाष दिखलाते हुए भी भीतर से सर्वथा नायक का ही अनुकरण करती है उसी प्रकार ये निषेधमुख श्रुतियाँ भी ‘न-न’ करके ही अपने परम ध्येय परब्रह्म का प्रतिपादन करती हैं। ‘नेति-नेति’ वचनामृत बोलती तथा मुग्धा साक्षात रूप से परब्रह्म का निरूपण करती हैं; जैसे ‘सत्यं ज्ञानममन्तं ब्रह्म’, ‘यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म’ इत्यादि। इसके सिवा जो अन्यपरा श्रुतियाँ, मुनिचरी और देव-कन्यारूपा व्रजांगनाएँ हैं, उनमें कोई तो सख्यभाव वाली हैं और कोई कान्तभाव वाली हैं। इनमें सख्यभाववती परिपक्वा हैं और कान्तभाववती अपरिपक्वा हैं। सख्यभाव वालियों का नित्य निकुंज-लीला में भी प्रवेश है, क्योंकि उनका व्रत तत्सुखसुखित्व है तथा जो कान्तभाववती हैं वे भी ललितादि की उपासना करके सख्यभाववती हो जाती हैं; जैसा कि कहा है-
अर्थात जो मेरे में जारभाव रखने वाली और मेरे स्वरूप को नहीं जानती थीं वे भी यूथेश्वरी आदि के संग से मुझ परब्रह्म को प्राप्त हो गयीं। इसका यह भी तात्पर्य है कि जो पहले कान्तभाव वाली थीं वे पीछे सख्यभाव वाली हो गयीं। तब इसी श्लोक का दूसरे प्रकार से अर्थ किया जायगा। ‘मम इमाः मत्काः’-जो मेरी ममता की आस्पद हैं; मैं स्वयं बड़े-बड़े योगीन्द्रों की ममता का आस्पद हूँ और उनमें मेरी भी ममता है और अबला हैं; ‘बलं आत्मनिष्ठादार्ढ्य तच्छून्याः’ अर्थात आत्मनिष्ठा की परिपक्वता से रहित हैं; और मेरी प्राप्ति आत्मनिष्ठों को ही होती है, क्योंकि श्रुति कहती है- ‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः’। इसी से यह भी कहा है- ‘पाण्डित्यं निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेत्’ अर्थात उपक्रमोपसंहारादि षड्विध लिंग से श्रुतियों का परम तात्पर्य ब्रह्म में निश्चित कर फिर बाल्य से-बालभाव से यानीं संशय-विपर्ययरहित होकर स्थित हो। इस प्रकार जो मदीया होने पर भी मेरे पूर्णतया परिनिष्ठिता नहीं हैं अथवा मेरे प्रति पूर्ण आत्मीयता का भाव नहीं रखतीं और कैसी हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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