भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जिस प्रकार शीतलता और उष्णता से रहित लोहपिण्ड में दाहकत्व एवं प्रकाशकत्व देखकर वहाँ दाहकत्व-प्रकाशकत्व समर्पण करने वाले नित्य दाहकत्व-प्रकाशकत्वगुण विशिष्ट अग्नि का अनुमान होता है, उसी प्रकार इन्द्रियों के विषय प्रकाशन सामर्थ्य से चिन्मय आत्मा का अनुमान होता है। साथ ही जिस प्रकार यह देखा जाता है कि लोहपिण्डादि में जो दाहकत्व-प्रकाशकत्व है वह सातिशय है और अग्नि में निरतिशय, उसी प्रकार यह भी अनुमान किया जा सकता है कि इन्द्रियादि का प्रकाशक आत्मा निरतिशय-ज्ञानमय है। परन्तु यह केवल अनुमान ही तो है, इसे साक्षात्कार नहीं कह सकते। अतः यदि साक्षात्कार करना है तो भगवान की लीला आदि का श्रवण करना चाहिये। इससे प्रेम की अभिवृद्धि होगी। प्रेम से चित्त में शिथिलता आयेगी, इससे वह निर्वत्तिक होगा और निर्वृत्तिक चित्त पर ही परब्रह्म का प्रकाश होगा। अतः भगवत्साक्षात्कार के लिये भगवत्लीलाओं का श्रवण-कीर्तन अनिवार्य ही है। इसी से भगवान ने रमण करने की इच्छा की। अब ‘ताः रात्रीः वीक्ष्य’ इस पर कुछ और विचार करते हैं। ‘रात्रीः परमरसमर्पयित्रीः’ अर्थात परमानन्दकन्द भगवान श्रीकृष्ण और गोपांगनाओं को परमरस समर्पण करने वाली उन रात्रियों को देखकर। यहाँ ‘ताः’ शब्द विलक्षणता का द्योतक है। उनमें मुख्य विलक्षणता तो यही थी कि जिन भगवान श्रीकृष्ण के विप्रयोग में गोपांगनाओं को एक-एक पल युगों के समान बीतता था उन्हीं ने इन रात्रियों को अपने सहवास-सौभाग्य के लिये नियुक्त किया था। व्रजांगनाएँ संसार में सबसे बड़ा सौभाग्य क्या समझती थीं? वे कहती हैं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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