भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री विष्णु-तत्त्व
जैसे निराकार तथा अतिगम्भीर आकाश का श्यामलरूप ही तत्त्व-रहस्यों को अभिमत है, वैसे ही निराकार, निर्विकार, परम गम्भीर विष्णु तत्त्व का भी श्यामल ही रूप श्रुतिसम्मत है। तम की उपाधि से उपहित, तम के नियामक भगवान शिव का वर्ण श्यामल है। उन्हीं का ध्यान करते-करते विष्णु श्यामल हो जाते हैं। उनका ध्यान करते-करते उनका स्वाभाविक शुक्लरूप शंकर में प्रकट हो जाता है। ये दोनों ही परस्परानुरक्त एवं परस्परात्मा हैं। युग के अनुरूप भी युगनियामक भगवान का रूप होता है। जैसे मनुष्यों का नियमन करके लिये भगवान को मनुष्यानुरूप बनना पड़ता है, वैसे ही युगनियमन के लिये भगवान को युगासनुरूप बनना पड़ता है। स्वतः अरूप भगवान में उपाधि के संसर्ग से ही रूप की आविर्भूति होती है। सत्त्वप्रधान कृतयुग, रजोमिश्रित सत्त्वप्रधान त्रेता रजःप्रधान द्वापर और तमःप्रधान कलि होता है। अतः कृत के अनुरूप ही कृतयुगीन भगवान शुक्लरूप में प्रकट होते हैं। त्रेता के अनुरूप भगवान का रक्तरूप है, द्वापर के अनुरूप पीत एवं कलि के अनुरूप भगवान का कृष्ण रूप होता है- ‘‘शुक्लो रक्तस्तथा पीतः इदानी कृष्णतां गतः।’’ इस दृष्टि से कलिनियामक होने से भगवान श्यामल हैं। भगवान जीव-चैतन्य ज्योतिःसमूह को ही कौस्तुभमणि के रूप में धारण करते हैं। वेदान्तसिद्धान्त के अनुसार एक, अखण्ड, अनन्त, सच्चिदानन्द भगवान के ही समाश्रित सम्पूर्ण जीव-चैतन्य होते हैं, अतः अवश्य ही जीव भगवान के भूषण हो सकते हैं, विशेषतः भगवत्प्राप्त भगवद्भक्त अवश्य ही भगवान के कण्ठ देदीप्यमान, चमत्कारपूर्ण भूषण बनते ही हैं। भक्त लोग तभी तो इनकी ईर्ष्या करते हैं-
अर्थात अहो! मुक्ता (मोती) एवं सुमनस (पुरुष) (पक्षान्तर में मुक्त लोग तथा देवता लोग) वैडूर्यादि वज्रक (पक्षान्तर में कूटस्थब्रह्मभावापन्न लोग) भी जब श्रीहरि के उरःस्थल को छोड़ना नहीं चाहते, तब भला स्मरवशा गोपांगना कैसे भगवान को छोड़ दें? उस कौस्तुभमणि की व्यापिनी साक्षात प्रभा को ही श्रीवत्स के रूप में भगवान धारण करते हैं। दक्षिण वक्षःस्थल पर कमलनाल-तन्तु के सदृश दक्षिणावर्त श्वेत रोमराजि ‘श्रीवत्स’ कही जाती है। वाम वक्षःस्थल पर वामावर्त सुवर्णवर्णा रोमराजि लक्ष्मी का चिह्न है। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज