भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री विष्णु-तत्त्व
एतावता भोक्तृवर्ग का सार तथा भोग्य-वर्ग का सार श्री एवं श्रीवत्स के रूप में भगवान के वक्षःस्थल पर विराजमान है। ऐश्वर्याधिष्ठात्री महाशक्ति भगवती लक्ष्मी ‘श्री’ है। परमात्मकर्तृक गर्भाधान की महिमा से श्रीप्रसूतजीवन चैतन्यसार ‘श्रीवत्स’ है। श्री वामवक्षःस्थल में और श्रीवत्स दक्षिणवक्षःस्थल में है और बीच में भृगुचरण चिह्न है। एतावता विप्रचरणारविन्द का समादरपूर्वक सेवन करने से ही श्री एवं श्रीवत्स की प्राप्ति सूचित होती है। नाना गुणमयी त्रिगुणात्मिका माया ही ‘वनमाला’ है। परमसौगन्ध्यमय त्रिगुणात्मिका प्रकृति के ही मनोहर पुष्पों की बनी समझनी चाहिये। छन्दःसमूह ही भगवान का पीताम्बर है। जैसे छन्दों से भगवान का स्वरूप चमत्कृत एवं शोभित होता है, वैसे ही पीताम्बर से भगवान का स्वरूप चमत्कृत एवं सुशोभित होता है, किन्हीं किन्हीं स्थानों पर मोहिनी माया को ही पीताम्बर बतलाया गया है। जैसे माया की निजी चमक-दमक से ब्रह्मस्वरूप तिरोहित हो जाता है, वैसे ही पीताम्बर से भगवान का मंगलमय श्रीअंग आवृत रहता है। माया के चाकचिक्य से अनासक्त एवं अप्रभावित ही जैसे भगवत्स्वरूप को जानता है, वैसे ही पीताम्बर की चमक-दमक को पार करने पर ही भगवत्स्वरूप का उपलम्भ होता है। छन्दों को भी पहले छादक बतलाया गया है। त्रिवत अर्थात त्रिमात्र प्रणव ही भगवान का उपनीत है। सांख्य एवं योग को भगवान ने मकराकृत कृण्डल के रूप में कानों में धारण कर रखा है। पारमेष्ठ्य पद ही भगवान का मुकुट है। अनन्त नामक अव्याकृत हो भगवान का आसन है। प्रकृतिरूप समष्टि कारणदेहाभिमानी चैतन्य ही अव्याकृत कहलाता है, उसी को शेष भी कहा जाता है। कार्य प्रपंच के प्रलय हो जाने पर जो अवशिष्ट रहता है, वही शेष है। उन अनन्तशेषरूपअव्याकृत पर ही चतुर्भज मूर्ति भगवान विष्णु विराजते हैं। यों भी अव्याकृत के ऊपर ही कार्य-कारणातीत तुरीयतत्त्व विद्यमान रहते हैं। चतुर्वर्गप्रद, चतुर्वेदात्मा, यतुर्युग, चतुरस्त्र भगवान की चार भुजाए है। एक हाथ में धर्म-ज्ञानदियुक्त सत्त्वमय पद्य को धारण किये हैं। पद्य की ही सुन्दरता, मधुरता, सरसता, सुगन्धता धर्मादिमय सत्त्व में होती है। ओज, बलादियुक्त, प्राण-तत्त्व ही भगवान की गदा है। जलतत्त्व को शंख के रूप में, तेजतत्त्व को सुदर्शन के रूप में दो हाथों में धारण कर रखा है। आकाशतत्त्व को ही तलवार एवं अन्धकार को ही चर्म (ढाल) के रूप में, काल को शंर्गधनुष के रूप में, कर्मों को ही निषंग के रूप में भगवान ने धारण किया है। इन्द्रियाँ ही भगवान के तूणीरों में रहने वाले बाण हैं, क्रियाशक्तियुक्त मन ही रथ है, शब्दादि पंचतन्मात्रा इस रथ का अभिव्यक्त रूप है। जैसे रथारूढ़ होकर व्यक्ति तूणीर से बाण निकालकर धनुष पर रखकर सन्धान करता है वैसे ही क्रियाशक्तियुक्त मन पर आरूढ़ होकर प्रत्यकचैतन्या भिन्न भगवान ही कालरूप धनुष पर इन्द्रियों को प्रतिष्ठित करके उनका सन्धान करते हैं। वर, अभय आदि की मुद्रओं के रूप मे भगवान अर्थ-क्रिया (प्रयोजनसम्पत्ति) को धारण करते हैं। |
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