भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वस्तु स्थिति ऐसी होने पर भी अनादि एवं अनिर्वचनीय अविद्याजनित मायामय शोकमोहादि सन्तापों से सन्तप्त प्रत्येक प्राणी को दुःख-निवृत्ति और सुख-प्राप्ति के लिये अनेक उपायों का अन्वेषण करना ही पड़ता है; इसी से मायामय देहादि की चेष्टारूप कर्मों में उनके शुभाशुभ भेद से विधि या निषेध किया जाता है। जिस प्रकार विष की निवृत्ति विष से ही की जाती है उसी प्रकार मायामयी उच्छृंखल प्रवृत्तियों के निराकरण के लिये वैदिक और स्मार्त्त्त श्रृंखलाओं को स्वीकार किया जाता है। अभिप्राय यह है कि प्रपंच के हेतुभूत अनादि अज्ञान की निवृत्ति परमात्मतत्त्व के ज्ञान के बिना नहीं हो सकती। परमात्मा के ज्ञान के लिये मनःसमाधान की आवश्यकता है, क्योंकि उस परमतत्त्व का अपरोक्ष साक्षात्कार निर्वृत्तिक चित्त द्वारा ही हो सकता है और मनोनिरोध के लिये देह तथा इन्द्रियादि की चेष्टाओं का निरोध होना चाहिये। इनका निरोध सहसा नहीं हो सकता। पहले उनकी प्रवृत्ति को नियमित करना होगा और उन्हें नियमित करने के लिये ही विधि-निषेधात्मक वैदिक-स्मार्त्त्त कर्मों का विधान किया गया है। इसी से कहा है- “अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।” इस प्रकार हम देखते हैं कि विधि-निषेध की अपेक्षा अज्ञानियों को ही है; किन्तु जो जन्म-मरणरूप संसार से अतीत, मृत्युंजय तत्त्वदर्शी हैं उन्हें इस प्रकार की श्रृंखला अपेक्षित नहीं है; फिर जो उन मुक्तात्माओं के भी गन्तव्य हैं उन श्रीभगवान के लिये तो ऐसी कोई श्रृंखला हो ही कैसे सकती है? भगवान में तो दो विरुद्ध धर्मों का आश्रयत्व देखा ही जाता है। वे ‘अणोरणीयान’ भी हैं और ‘महतो महीयान्’ भी। भगवान में ही नहीं, यह बात तो कारण मात्र में रहा करती है। देखो, एक ही पृथ्वी तत्त्व में दुर्गन्ध और सुगन्ध दोनों रहते हैं। अतः भगवान एक ही साथ दोनों प्रकार के आचरण दिखलायेंगे। वे योगारूढ़ों के लिये समस्त वैदिक और स्मार्त्त्व श्रृंखलाओं का उच्छेद करके एकमात्र भगवान में ही स्वारसिकी प्रीति का उपदेश करेंगे, तथा आरुरुक्षुओं के लिये अपने वर्णाश्रमर्ध का यथावत पालन करने की आवश्यकता प्रदर्शित करेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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