भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जब उन्होंने ध्यानस्थ होकर इसके कारण का अन्वेषण किया तब उन्हें मालूम हुआ कि उसे यह सन्देह है कि जिसका सौन्दर्यमाधुर्य ऐसा विलक्षण है वह मेरे जैसे अकिंचन पुरुष से स्नेह क्यों करेगा? तब व्यास जी ने इस शंका की निवृत्ति करने के लिये भगवान की दयालुता को प्रकट करने वाला यह श्लोक उन बालकों को पढ़ाया और पूर्ववत उन्हें श्रीशुकदेव जी के पास जाकर इसे गाने का आदेश किया।
इस श्लोक को सुनकर श्रीशुकदेव जी को आश्वासन हुआ और उन्होंने बालकों से पूछा कि तुमने यह श्लोक कहाँ से याद किया है? बालकों ने कहा-‘हमारे गुरुदेव श्रीव्यास भगवान ने एक अष्टादश सहस्र श्लोकों की महासंहिता रची है। ये श्लोक उसी के हैं।’ यह सुनकर वे भगवान व्यासदेव के पास आये और उनसे उस महाग्रन्थ का अध्ययन किया। अध्ययन करने में एक दूसरा हेतु और भी था। ‘नित्यं विष्णुजनप्रियः’ भगवान शुकदेवजी को सर्वदा विष्णु भक्तों का संग प्रिय था। श्रीमद्भागवत वैष्णवों का परमधन है। अतः इसके कारण उन्हें सदा ही वैष्णवों का सहवास प्राप्त होता रहेगा, इस लोभ से भी उन्होंने उसका अध्ययन किया। इससे शौनक जी के प्रश्न का उत्तर हो जाता है। वे हरिगुणाक्षिप्तमति थे, इसीलिये आत्माराम होने पर भी उन्होंने इस महासंहिता का अध्ययन किया। वस्तुतः भगवान के गुणगण ही ऐसे हैं-
यहाँ ‘निर्ग्रन्थाः’ इस पद के दो अभिप्राय हैं- (1) ‘निर्गता ग्रन्थयो येभ्यस्ते’ अर्थात ब्रह्म में परिनिष्ठित होने के कारण जो आत्मानात्म सम्बन्धी ग्रन्थियों से मुक्त हो गये हों वे निग्रन्थ हैं। अथवा (2) ‘निर्गता ग्रन्था येभ्यस्ते’ परब्रह्म में परिनिष्ठित होने के कारण जिनका ग्रन्थावलोकन छूट गया हो। वास्तव में योग की सिद्धि तो होती ही उस समय है, जिस समय कि शास्त्रोक्त विविध वादों से विचलित हुई बुद्धि उन सब विवादों से ऊपर उठकर निश्चल भाव से एक तत्त्व में स्थित हो जाय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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