भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जिस समय बुद्धि मोहातीत हो जाती है उस समय वह श्रोतव्य और श्रुत से उपरत हो जाती है; फिर तो एकमात्र ब्रह्मवीथि में ही उसका विचरण हुआ करता है। भगवान कहते हैं- “यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। श्री विद्यारण्य स्वामी तो ऐसी अवस्था में शास्त्रसंन्यास की व्यवस्था भी करते हैं-
भगवती श्रुति भी कहती हैं- “तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुंचथ।”[3] यहाँ यह विरोध प्रतीत होता है कि जब श्रुति-स्मृति और आचार्य सभी का यह मत है कि स्वरूप-साक्षात्कार होने के पश्चात शास्त्राभ्यास में प्रवृत्ति नहीं होती और होनी भी नहीं चाहिये तो श्रीशुकदेव जी की इस महाग्रन्थ के अध्ययन में कैसे प्रवृत्ति हुई? इसका एकमात्र हेतु, जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं, यही था कि वे हरिगुणाक्षिप्तमति थे। वे यद्यपि स्वयं उसमें प्रवृत्त नहीं हुए थे तथापि भगवान के गुणों की मधुरिमा ने उन्हें स्वयं उस ओर खींच लिया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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