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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
जब अनेकों स्थलों में वैज्ञानिक-निर्दिष्ट पद्धति से काम करने पर सफलता देखी जा चुकी है, तब तो स्पष्ट ही है कि जहाँ कहीं यन्त्रों की की विफलता या हानिकारकता देखी जाय, वहाँ संचालन, निर्माण में ही कर्तृ-क्रियादि की विगुणता या अन्यान्य किसी प्रकार की त्रुटि का ही फल-बल से कल्पना करना उचित है। इसी तरह जप, पाठ, पूजा आदि किन्हीं भी प्रामाणिक शास्त्रोक्त उपायों को जब अनेकों स्थलों में सफल होते देख रहे हैं, तो कतिपय स्थलों में व्यर्थता देखकर फल-बल से ही उनके अनुष्ठान में या साधनों में या कर्ताओं में अवश्य ही किसी प्रकार की त्रुटि समझ लेनी चाहिये। चिकित्सकों के शास्त्रोक्त अनेक उपाय कहीं व्यर्थ हो जाते हैं, साथ ही कहीं हानिकारक भी साबित होते हैं, तो भी वे उपाय सर्वदा व्यर्थ और सर्वदा हानिकारक हैं, यह समझना भारी भूल है। किन्तु यही समझना उचित है कि जब यह अनेकों स्थलों में सफल होते हैं, तो प्रयोक्ता या प्रयोग को ही कोई त्रुटि होने से कहीं विफल होते हैं। इस तरह सहज ही में समझा जा सकता है, कि जब अनेक जगह पूजा, पाठ, जप आदि की सफलता प्रत्यक्ष ही देखी जाती है, फिर भी कहीं सोमनाथ आदि स्थलों में यदि पूजादि की व्यर्थता हुई, तो इससे प्रयोक्ताओं या प्रयोगों में ही त्रुटि की कल्पना कर लेनी चाहिये, न कि पूजादि उपायों को ही सर्वदा के लिये व्यर्थ और हानिकारक मान लेना चाहिये। अध्यक्षों और पूजकों के अत्याचारों, अनाचारों और मन्दिरों के अपचारों से मूर्ति में से देवतत्त्व हट जाता है। अनुष्ठानों में, मन्त्रोच्चारण में किसी तरह की गड़बड़ी या अनुष्ठाताओं के आचार-विचारों में गड़बड़ी से अनुष्ठान व्यर्थ और हानिकारक हो सकते हैं, परन्तु इतने से ही सब अनुष्ठान वैसे ही नहीं समझे जा सकते। इसके सिवा जैसे दो मल्लों के युद्ध में प्रबल मल्ल की विजय, दुर्बल का पराभव होता है वैसे ही किसी अनर्थ को दूर करने के लिये किये गये पुरुषार्थ से, अनर्थ के जनकभूत प्रारब्ध कर्म से संघर्ष होता है। यदि पिछले अनर्थारम्भक कर्मों की प्रबलता रही और अनर्थ निवारक वर्तमान पुरुषार्थ कमजोर रहा तो पुरुषार्थ की व्यर्थता हो जाती है, परन्तु यदि अनर्थारम्भक प्रारब्ध कर्मों से पुरुषार्थ प्रबल हुआ तो अवश्य ही सफलता मिलती है। भेद यही है कि प्रारब्ध कर्म अब घटाये-बढ़ाये नहीं जा सकते, पुरुषार्थ बढ़ाया जा सकता है। अतः पुरुषार्थ से कभी भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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