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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
तद्व्यतिरिक्त समस्त प्रपंच मायिक ही है। यही वेदान्तियों का मत है। इसके सिवा जिन दार्शनिकों ने वेदान्त मत का खण्डन किया है उन्होंने भी अद्वैत ही को वेदान्त-सिद्धान्त मानकर अनुवादपुरस्सर खण्डन किया है। सांख्यों तथा नैयायिकों में पांचरात्र पाशुपातों तथा बौद्धों ने भी अद्वैत को ही वेदान्त मत मानकर खण्डन किया है। अब यहाँ प्रेक्षावानों को विचार करना चाहिये कि जब क्रमशः उक्त प्रकार से सभी सिद्धान्त अद्वैत की ओर (ही) अग्रसर हो रहे हैं और विचार दृष्टि से सभी का प्रधान-प्रधान अंशों में अविरोध सिद्ध होता है तब कलह के लिये स्थान कहाँ रह जाता है। द्वैतसिद्धान्ताऽनुयायियों का परम तात्पर्य श्रीमद्भगवच्चरणाम्बुज के अनुराग में ही है। यह बात अद्वैतवादियों को भी सम्मत है। यह बात दूसरी है कि कोई भगवान के भूतभावन श्रीसदाशिव रूप में, कोई श्रीविष्णु रूप में, कोई पतितपावन श्रीमद्रामभद्र रूप में, कोई श्रीकृष्ण आनन्दकन्द रूप में तथा अन्यान्य रूप में प्रेम रखते हैं। विद्वानों का कहना है कि जैसे एक ही गगनस्थ सूर्यतत्त्व घट, सरोवरादि अनेक उपाधियों में प्रतिबिम्बित होकर बिम्बप्रतिबिम्ब भावापन्न होता है, ठीक उसी तरह अनिर्वाच्य मायामय गुणों के परस्पर विमर्द वैचित्र्य निबन्धन विविध उपाधियों के योग से “माया आभासेन जीवेशौ करोति” इत्यादि श्रुति के अनुसार अनन्तकोटि-ब्रह्माण्ड तद्गतजीवेशादि रूप से एक ही परमतत्त्व प्रादुर्भूत होता है। जैसे परम विशुद्ध गगनस्थ सूर्य ही प्रतिबिम्बापेक्षया बिम्बपदवाच्य होते हुए सर्वथा अविकृत है वैसे ही अनन्तकोटि-ब्रह्माण्ड तद्गत जीव एवं अवान्तर तत्तन्नियन्ता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादि नियम्य की अपेक्षा परम विशुद्ध तत्त्व ही अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के नायक होते हुए भी सर्वथा अविकृत है। जैसे वे ही सूर्य नीलपीत आदि उपनेत्रों से नील-पीत आदि अनेक रूपों में भासमान होते हैं वैसे ही एक ही परमतत्त्व विष्णुस्वरूपादि भावना-भावितमनस्कों को विष्णु रूप में और सदाशिव भगवान की भावना से भावितमनस्कों को सदाशिव रूप में उपलब्ध होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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