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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
अत: विशिष्टाद्वैत श्रीकण्ठीय शैवभाष्य की टीका करते हुए श्रीमदप्पयया जी दीक्षित कहते हैं कि यद्यपि सकल सच्छास्त्रों का महातात्पर्य अखण्ड अनन्त विशुद्ध अद्वैत ब्रह्म में ही है तथापि साम्ब सदाशिव की भक्ति बिना प्राणियों को अद्वैत वासना और निष्ठा नहीं हो सकती-“यद्यप्यद्वैत एव श्रुतिशिखरगिरामागमानाञ्च निष्टा, साकं सर्वैः पुराणैः स्मृतिनिकरमहाभारतादिप्रबन्धैः। प्रत्नैराचार्य्यरत्नैरपि परिजगृहे शंकराद्यैस्तदेव, तत्रैव ब्रह्मसूत्राण्यपि च विमृशनाम्भान्ति विश्रान्तिमन्ति।। तथाप्यनुग्रहादेव तरुणेन्दुशिखामणेः।। अद्वैतवासना पुंसामाविर्भवति नान्यथा।” वही रजस्तमोलेशादि से अननुविद्व, अचिन्त्याऽनिर्वाच्य अन्तरंगा आह्लादिनी शक्ति के योग से विभिन्न-विभिन्न भक्तों के भावानुसार भिन्न-भिन्न मंगलमय विग्रहरूप में शिवपुराण तथा स्कन्दपुराण में शिवरूप से, विष्णुपुराण में विष्णुरूप से, श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण रूप से और श्रीरामायण में श्रीरामभद्र रूप से-
के अनुसार गाये जाते हैं। अन्यथा जैसे विष्णुपुराणादि में विष्णु का परत्व, सदाशिवादि का अपरत्व पाया जाता है वैसे ही स्कन्दपुराणादि तथा महाभारत में भी भीष्म के सामने युधिष्ठिर के लिये श्रीकृष्ण मुख से ही सदाशिव का परत्व और तदतिरिक्त का अपरत्व पाया जाता है। शिवपरक पुराणों को तामस, राजस बतलाकर उनसे पीछा छुड़ाना भी सहृदय-हृदयग्राह्य नहीं हो सकता। क्योंकि शिवपरक पुराणों में भी केवल शिवमाहात्म्य-प्रतिपादक पुराण ही कल्याणकारक हैं, तदतिरिक्त नहीं। अश्रुतशिव माहात्म्य पुरुष नरकगामी होता है; ऐसे एक-दो नहीं, सहस्रों वचन दिखलाये जा सकते हैं। विरुद्ध क्रिया संकल्पासिद्धि आदि अनेक दोषों के भय से सर्वसम्मति से ईश्वर एक ही है, दो नहीं। पुराणों के निर्माता महर्षि व्यास सर्वलोक-कल्याणार्थ प्रवृत्त होकर परस्पर-विरुद्ध बातें कह भी कैसे सकते हैं? वेदों में जैसे “नारायणो ह या इबमप्र आसीत्” से नारायण का ही अस्तित्व पाया जाता है वैसे ही “एको रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुः” इत्यादि वचनों से रुद्र का ही अस्तित्व भी पाया जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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