भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
किन-किन ब्रह्माण्डों के, किन-किन जीवों के, किन-किन जन्मों के, किन-किन कर्मों का फल किन-किन देशों एवं कालों में, किस तरह प्रदान करना चाहिये, यह ज्ञान, कर्म एवं जीव इन दोनों ही के लिये अशक्य है। न तो कर्म ही अपने अनन्त स्वरूपों एवं फलों को जान सकते हैं और न जीवों को ही अनन्त कर्म एवं तत्फलों का ज्ञान है। यदि हो भी तो फल सम्पादन की शक्ति नहीं है। क्योंकि परमेश्वर के सिवा सभी की शक्तियाँ क्षुद्र ही हैं। यदि जीव को कर्म एवं उनके फलों का ज्ञान तथा फल सम्पादन की शक्ति भी हो, तो भी जीव अपने शुभ कर्मों के शुभ फलों के ही सम्पादन में रुचि रख सकता है। अशुभ कर्म एवं तत्फलों के सम्पादन में उसकी कथमपि रुचि एवं प्रवृत्ति नहीं हो सकती। अतः सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान, भगवा के बिना अन्यत्र सर्वं ब्रह्माण्डान्तर्गत सर्व जीव तथा उनके कर्म तथा फलों का ज्ञान और कर्म-फलदान की शक्ति का होना असम्भव है। इस तरह अविद्या काम कर्म विशिष्ट जीव का ही सुषुप्ति अवस्था में सबीज ब्रह्म के साथ सायुज्य (एकता) होता है। ब्रह्मसम्मिलन में जीव को अद्भुत आनन्द की प्राप्ति होती है। परन्तु सुषुप्ति में आवरण जीव का आवरण ब्रह्म के साथ सम्मिलन होता है, इसलिये व्यवधान का अवशेष रहता है। व्यवधानरहित ब्रह्मसम्मिलन तो तभी हो सकता है जब जीव स्वयं निरावरण होकर निरावरण ब्रह्म के साथ सम्मिलन प्राप्त करे। इस आवरण निवृत्ति के लिये स्वधर्मानुष्ठान, भगवदाराधन, श्रवण, मनन, निदिध्यासन, अधिष्ठानभूत भगवान का साक्षात्कार किया जाता है। अज्ञानरूप आवरण की निवृत्ति से ही जीव को व्यवधान-शून्य ब्रह्म का सम्मिलन प्राप्त होता है। जिस समय श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द हस्तिनापुर से श्रीद्वारका पधारे, उस समय प्रोषित भर्तृका द्वाराकास्थ श्रीकृष्ण पट्टमहिषीगण प्रियतम का आगमन सुनकर प्रियसम्मिलन के लिये आसन से एवं आशय से उठीं- ‘उत्तस्थुरारात्सहसासनाऽशयात्।’ यहाँ देशकृत व्यवधान निराकरण के लिये श्रीकृष्ण प्रेयसीवर्ग का आसन से अभ्युत्थान हुआ। वस्तुकृत व्यवधान के निवारण के लिये आशय से अभ्युत्थान है- “आशेरते कर्मवासना यत्रासावाशयः।” आशय शब्द से अन्तःकरण विवक्षित है, जो कि समस्त कर्मवासनाओं का आलय है। आशय भी पंचकोश का उपलक्षण है, अर्थात श्रीकृष्णप्रेयसी आशयोपलक्षित पंचकोश कंचुक से समावृत स्वरूप से प्रियसम्मिलन में त्रुटि समझकर पंचकोश कंचुक से पृथक होकर निरावरण रूप से प्रियतम सम्मिलन के लिये उठीं। यहाँ पंचकोशातीत ‘त्वंपदलक्ष्यार्थ’ ही जीव का निजी शुद्ध स्वरूप है और ‘तत्पदलक्ष्यार्थ’ व्यापक महाचेतन ही उसका अंशी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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