भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
अतः सुषुप्तोत्थ पुरुष के स्मरण से निश्चय होता है कि सुषुप्ति में गाढ़ निद्रा एवं सौषुप्तसुख का प्रकाशक कोई स्वाभाविक अखण्ड नित्य विज्ञान अवश्य था। यहाँ जो लोग यह कहते हैं कि सुषुप्ति में कोई भावरूप सुख या अज्ञान नहीं होता किन्तु दुःख के अभाव एवं ज्ञान के अभाव में ही सुख एवं अज्ञान का व्यवहार होता है, उनको यह बतलाना चाहिये कि ज्ञानाभाव का ज्ञान कैसे होगा? अभाव के ज्ञान में अनुयोगी (अधिकरण) एवं प्रतियोगी (जिसका अभाव हो) का ज्ञान आवश्यक होता है। जैसे घटाभाव जानने के लिये अनुयोगी (घटाभाव के अविकरण भूतलादि) तथा प्रतियोगी (घट) इन दोनों का ज्ञान आवश्यक होता है। अन्यथा किसका अभाव कहाँ है, ऐसी जिज्ञासा शान्त नहीं होती। यदि सुषुप्ति में ज्ञानाभाव के अधिकरण एवं उसके प्रतियोगी का ज्ञान रहा हो, तब उस ज्ञान के होते हुए, वहाँ ज्ञानाभाव कैसे कहा जा सकता है? जिस भूतल में कोई भी घट हो वहाँ घटाभाव का व्यवहार कैसे हो सकता है? यदि सुषुप्ति में ज्ञानाभाव के अनुयोगी एवं प्रतियोगी का ज्ञान नहीं था, तब तो उस ज्ञानाभाव की अनुपलब्धि या प्रत्यक्ष द्वारा कथमपि ज्ञान नहीं हो सकता है। अतः आत्मस्वरूप का आवरण करने वाला अज्ञान पूर्व कथनानुसार भावरूप ही है। जैसे सूर्य के आवरक मेघ का प्रकाश सूर्य से ही होता है, उसी तरह नित्य विज्ञानानन्दघन आत्मा के आवरक अज्ञान का प्रकाश साक्षीरूप आत्मा से ही होता है। अस्तु, इस प्रसंग का स्पष्टीकरण अन्यत्र किया जायगा। प्रकृत प्रसंग यही है कि सुषुप्ति दशा में निद्रा या अज्ञान से समावृत साक्षी द्वारा अज्ञान का प्रकाश होता है। अहंकार आदि वहाँ नहीं होते। सुषुप्ति के अनन्तर प्रथम निद्रा की निवृत्ति में कुछ ऐसा ज्ञान होता है, जिसमें किसी तरह के विशेष विकल्प का स्फुरण नहीं होता। यहाँ दो स्थितियाँ हैं- विषय-विशेष के स्फुरण के बिना बौद्ध ज्ञान होता है, जिसे व्यष्टि महत्तत्त्व कह सकते हैं; जिसके अनन्तर अहंकार का उल्लेख होता है, इसीलिये अज्ञान से ज्ञान की उत्पत्ति मानी जाती है। सुषुप्ति में अज्ञान ही होता है और उसके अव्यवहित उत्तर जागर या स्वप्न में ही कुछ ज्ञान होता है। समष्टि अज्ञान रूप माया से महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है। जैसे अव्यक्त से व्यक्त का प्रादुर्भाव है वैसे ही अज्ञान से ज्ञान का प्रादुर्भाव होना युक्त ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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