भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
ठीक ही है, संसार के समस्त नाते इस देह के ही साथ हैं, उसके नष्ट होने पर समस्त नाते मिट जाते हैं। नही तो इस अपार संसार में अनन्त जन्म के देह-सम्बन्धियों का यदि स्मरण रहे तब कितनी माताएँ, कितने पिता और कितने पुत्र कलत्रादि कुटुम्बी कहाँ-कहाँ हैं, उन सभी के सुख-दुःख में कितना सुख-दुःख देखना पड़े। एक ही जन्म के कुटुम्बियों के सम्बन्ध में क्या दशा हो रही है। अस्तु, देह के नष्ट होते ही स्त्री, पुत्र, धनधान्य तथा अखण्ड साम्राज्य से सम्बन्ध छूट जाता है। कदाचित दूसरे जन्म में किसी को स्मरण भी रहे कि यह साम्राज्य और विशाल धवलधाम सब मेरे ही हैं। पर अब बिना वर्तमान अधिपति की आज्ञा के उसे अपने ही निर्मित उस धवलधाम में प्रवेश करने का अधिकार नहीं है और गत जन्म में उसके नियुक्त भृत्य ही उसे प्रवेश नहीं करने देते हैं। ठीक है, देह तक ही समस्त सांसारिक सम्बन्ध हैं। अतः समस्त पुत्र, कलत्रादि बहिरंग पदार्थों की अपेक्षा देह प्रिय होता है। ऐसे ही देह की अपेक्षा इन्द्रियाँ, उनकी अपेक्षा मन, मन की अपेक्षा बुद्धि एवं बुद्धि से भी अहमर्थ और उससे भी अन्तरंग विशुद्ध चिदात्मा प्रिय है। इन्द्रिय-शक्ति के बिना शरीर मृतकप्राय हो जाने के कारण भाररूप हो जाता है। जब मन किन्हीं कांचन, कामिनी प्रभृति विषयों की ओर खिंच जाता है, तब प्राणी मनःसन्तोषार्थ देह और इन्द्रियों की भी परवाह नहीं करते। किसी प्रकार की अकीर्ति आदि से यदि मन को उद्वेग होता है, तब देहादि-त्याग के लिये विष या शस्त्र का प्रयोग किया जाता है। जब प्राणी मन की चंचलता से संतप्त होता है, तब उसके भी निग्रह का उपाय ढूढँता है और निश्चयात्मिका बुद्धि द्वारा संकल्प-विकल्पात्मक मन का भी निग्रह करता है। जब प्राणी को मन आदि करणग्राम के निरोध या निर्व्यापारता का आनन्द का अनुभव होने लगता है, तब तो वह दुःखात्मक दृश्य के प्रतीतिनिरोध के लिये बुद्धि को भी निरोध करके निगृहीत करने की चेष्टा करने लगता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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