भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
अब यह देखना चाहिये कि दुःखजड़रूप प्रपंच सत्य है या मिथ्या? यदि पूर्वोक्त न्याय से विचार करें तो स्पष्ट विदित होगा कि कार्य और कारण में अनिर्वचनीय विलक्षणता है। अतः जैसे आनन्द चैतन्यात्मक ब्रह्म से जड़ तथा दुःखात्मक प्रपंच का होना सम्मत है, वैसे ही परमार्थसत्य परमात्मा से मिथ्या प्रपंच का प्रादुर्भाव मानना युक्त है। इन विवेचनों से सिद्ध हुआ कि परमानन्द स्वप्रकाश परमार्थसत्य भगवान से दुःखात्मक, जड़ात्मक, मिथ्या अर्थात अपरमार्थिक व्यवहारोपयोगी, व्यावहारिक प्रपंच का प्रादुर्भाव होता है। जैसे अग्नि में दाहिकाशक्ति अग्नि से विलक्षण होती है, वैसे ही त्रिकालाबाध्य सद्रूप ब्रह्म की जो प्रपंचोत्पादिनी शक्ति है, वह भी उससे विलक्षण है। अतः त्रिकालाबाध्य-रूप सत् विलक्षण उसकी शक्ति शुद्ध सद्रूप अधिष्ठान के बोध से बाधित होती है। साथ ही क्वचिदपि कथचिंदपि न प्रतीत होने वाले अत्यन्त असत् खपुष्पादि से भी निष्ठ वह शक्ति, जिससे परमात्मा अपने आपको सकल प्रपंचरूप से व्यक्त करता है, सत् और असत् दोनों से विलक्षण है, अत: उसको अनिर्वचनीय कहते हैं। इस शक्ति को ही ‘माया’, ‘प्रकृति’, ‘अविद्या’, ‘अज्ञान’ आदि शब्दों से कहा जाता है। जैसे “योगमायासमावृतः” इत्यादि वचनों से माया द्वारा ज्ञानानन्दस्वरूप ब्रह्म का आवरण कहा है, वैसे ही “अज्ञानेनावृतं ज्ञानम्” इस वाक्य से अज्ञान को भी आवरक कहा है। जैसे “मायामेतां तरन्ति ते” इस वाक्य में माया का तरण कहा है, वैसे ही “ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः” इस वचन से ज्ञान को अज्ञान का नाशक कहा है। ज्ञानाभावरूप अज्ञान को आवरणकर्तृत्व नहीं हो सकता, भावाभाव के असमकालिक होने से ज्ञान से ज्ञानाभावरूप अज्ञान का नाश भी नहीं हो सकता, अतः अज्ञान सदसद्विलक्षण मायाशक्ति रूप ही है। जैसे ‘चित्’, ‘अचित’ इन दोनों शब्दों से चेतन और जड़ दोनों भावरूप ही गृहीत होते हैं, वैसे ही ज्ञान, अज्ञान इन दोनों शब्दों से परमात्मा और उसकी शक्ति अनिर्वचनीय मायागृहीत होती है। वह शक्ति जैसे सद्विलक्षण है, वैसे ही चित् से भी विलक्षण है, अतः ‘अचित’ जड़ समझी जाती है। उसी के द्वारा सच्चिदात्मक तत्त्व का जड़ प्रपंचरूप से विवर्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज