भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
प्रायेण मन्त्र, ब्राह्मण और कल्पसूत्र साथ ही चलते हैं। यद्यपि उन सभी का महातात्पर्य सर्वप्राणि परप्रेमास्पद परिपूर्ण परमानन्दघन भगवान में ही है यथा “सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति” तथापि अदृश्य, अग्राह्य, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य, परमसूक्ष्म भगवत्तत्त्व की उपलब्धि और उसमें स्थिति बहिर्मुख प्राणियों के लिये कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है। अतः योग्यता-सम्पादन के लिये अनेक प्रकार के कर्म और उपासनाओं की अत्यन्त आवश्यकता है। अतः वेदों का अवान्तर तात्पर्य उनमें भी है। वेदों के महातात्पर्य के विषयभूत परमानन्दघन भगवान में ही सकल प्रपंच की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और प्रतीति होती है। अतः जैसे तरंग के भीतर, बाहर, मध्य में जल ही भरपूर होता है, वैसे ही भोक्ताभोग्य सकल प्रपंच के भीतर, बाहर, मध्य में परमानन्द रसात्मक भगवान ही भरपूर है। किंबहुना एक आनन्द सुधा-सिन्धु भगवान ही अपनी अघटितघटनापटीयसी मायाशक्ति के प्रभाव से नाना दृश्य रूप में प्रतीत होते हैं, यथा श्रुतिः “आनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्दमभिप्रयन्त्यभिसंविशन्ति, आनन्दं ब्रह्मेति व्यजानात्”, “एकोऽहम् बहुस्याम्” इत्यादि। जैसे आनन्द स्वरूप से दुःखात्मक प्रपंच प्रादुर्भूत होता है, वैसे ही चैतन्य से जड़ प्रपंच का प्रादुर्भाव होता है। यह बात अभिन्ननिमित्तोपादान कारणवादियों को माननी पड़ती है और उसी तरह त्रिकालाबाध्य परमार्थ सत्य भगवान से अनृतात्मक प्रपंच का प्रादुर्भाव होता है, यह भी मानना चाहिये। प्रपंच आनन्द से उत्पन्न होने वाला और आनन्द में विलीन होने वाला है, यह उपर्युक्त श्रुतियों से स्पष्ट सिद्ध होता है। जैसे समुद्र से उत्पन्न और विलीन होने वाला तरंग समुद्र ही है, वैसे ही आनन्द से उत्पन्न और उसी में विलीन होने वाला प्रपंच भी आनन्दात्मक ही होना चाहिये तथा सर्वप्रकाशक चेतन्यघन से उत्पन्न होने वाला प्रपंच चेतनात्मक ही होना चाहिये। परन्तु प्रपंच में दुःखरूपता और जड़ता सर्वानुभवसिद्ध एवं सर्वमान्य है, अतः कहना पड़ता है कि कारणगत अनिर्वचनीय शक्ति से कार्य में अनिर्वचनीय विलक्षणता होती है। इसी वास्ते यद्यपि स्पष्ट देखते हैं कि जल से भिन्न बर्फ और तन्तु से भिन्न पट कोई पृथक पदार्थ नहीं है, तो भी जल और तन्तुओं की अपेक्षा उनमें (बर्फ और पट में) विलक्षणता अवश्य है। इसीलिये आनन्द और स्वप्रकाश चैतन्यरूप परमात्मा से भिन्न जड़ और दुःखरूप प्रपंच उत्पन्न होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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