भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
वृन्दावन तरुणी व्रजदेवियों के कानों में कुवलय (कमलविशेष), नेत्रों में अंजन, उर (हृदय) में महेन्द्र नीलमणि की माला, किंबहुना समस्त मण्डन (भूषणालंकार) श्रीकृष्ण ही हैं। इस तरह विचार करने पर सर्व प्राणियों के निरतिशय निरुपाधिक परप्रेम के आस्पद प्रत्यक्चैतन्याभिन्न भगवान से छिपाव की बात ही नहीं बनती। मोटी दृष्टि से देखें, तो भी चाहे कितनी भी असूर्यम्पश्या साध्वी सती पतिव्रता क्यों न हो, परन्तु क्या वह अपने अंगों को वायु से असंस्पृष्ट रख सकती है? जल से क्या उसके गुह्यतिगुह्य का स्पर्श नहीं होता? तेज, वायु किंवा आकाश से कौन स्त्री अपने अंगों को अदृष्ट एवं असंस्पृष्ट रख सकती है? तस्मात् यही कहना होगा कि स्वपति से भिन्न अन्य पुरुष से ही आवरण किया जाता है। जब यह स्थिति है, तब तो फिर आकाश का भी कारण अहंतत्त्व, उसका भी कारण महत्तत्त्व, महत्तत्त्व का कारण अव्यक्त तत्त्व और उसका भी कारण या अधिष्ठान सत्तत्त्व सबसे अन्तरंग है। फिर सर्वान्तरंग सर्वान्तरात्मा उस स्वप्रकाश सर्वभासक सत्तत्त्व से व्यवहित, अदृष्ट कौन वस्तु हो सकती है? विश्व में कोई भी अणु या परमाणु ऐसा नहीं, जो सत्ता और स्फूर्ति से अनालिंगित हो, फिर व्रजांगना या कोई साध्वी स्त्री या कोई चिदानन्दमयी जीव शक्ति, कि बहुना कोई भी तत्त्व स्वप्रकाश सदानन्दघन श्रीकृष्ण से अनालिंगित असंयुक्त कैसे हो सकता है? जब कोई जल, तेज वायु और आकाश से भी अपने आपको अस्पृष्ट नहीं रख सकता, तब वह उन सबके परम कारण अधिष्ठान या प्रकाशक से कैसे अपने को असंस्पृष्ट रख सकता है? भोक्ता के साथ भोग्य का तादात्म्य ही भोग है। “सविता गोभी रसं भुङ्क्ते” सूर्य अपनी रश्मियों से रस का संभोग करते हैं। यहाँ भी रश्मि द्वारा रस की सूर्य के साथ अभेदापत्ति ही भोग है। भोक्ता भोग्य को अपने साथ तादात्म्य कर लेता है। अनुकूल-प्रतिकूल विषयों के एवं तज्जन्य सुख-दुःखों के साक्षात्कार को ही भोग कहा जाता है। यह साक्षात्कार जड़ मन, बुद्धि और अहंकार आदि से असम्भव है। अतः स्वप्रकाश चेतन से ही समस्त विषयों का साक्षात्कार या भोग सम्पन्न होता है। अतएव बौद्ध बोध से भिन्न एक पौरुषेय बोध मानने की अपेक्षा पड़ती है। जैसे जपाकुसुमादि द्वारा लोहित स्फटिक पर प्रतिबिम्बित पुरुष में भी उसी लौहित्य का भान होता है, उसी तरह श्रोत्रादि इन्द्रियप्रत्युपस्थापित शब्द-स्पर्शादि विषयों के आकार से आकारितवृत्तिमदन्तःकारण के आरोपित सम्बन्ध से चिदात्मा में भी विषयाकारता बन जाती है। जैसे जपाकुसुमोपाधि से लोहित स्फटिक। स्वप्रतिबिम्बित पुरुष में भी अपने लौहित्य आकार का समर्पण कर देता है, वैसे ही इन्द्रियों द्वारा विषयाकाराकारित वृत्तिमदन्तःकारण भी स्वप्रतिबिम्बित चैतन्य में अपनी विषयाकारता का समर्पण करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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