भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
बस, इस तरह असंग में परस्परया विषय सम्बन्ध, प्रकाशकता या भोक्तृता बनती है। सभी विषयों का मुख्य भोक्तृत्व चिदात्मा में ही बनता है, तथा च सभी कान्तास्पर्शादि सुख का भी मुख्यभोक्ता अन्तरात्मा श्रीकृष्ण ही हैं। इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि, भोग में साधन हैं। समष्टि मन का अभिमानी चन्द्रमा सभी भोगों के साधन हैं। इतने पर भी सर्वदर्शन, सर्वस्पर्श में साधक बनकर भी वे व्यष्टि अभिमानशून्य होने से अप्रत्यवायी हैं। उसी तरह समष्टि अन्तरात्मा भगवान श्रीकृष्ण सर्वभोक्ता होने पर भी अप्रत्यवायी ही हैं। जैसे सब मनों का अभिमानी होने से चन्द्र के स्पर्श से किसी भी साध्वी का पतिव्रत नहीं बिगड़ता वैसे ही सर्वान्तरात्मा श्रीकृष्ण का संस्पर्श किसी के भी पतिव्रत का व्यापादक नहीं है-
जो गोपियों और उनके पतियों एवं सभी का अन्तरात्मा है वह सर्वाध्यक्ष व सर्वथा निर्लेप एवं निर्दोष ही रहता है। भोक्ता से भोग्य के अत्यन्त अव्यवधान को भोग कहा गया है। चिदात्मा भोक्ता का विषयों के साथ इन्द्रिय, मन और बुद्धि के द्वारा अव्यवधान होता है। भगवान की चिदानन्दमयी जीवशक्तियों का उनके साथ स्वाभाविक आत्यन्तिक अव्यवधान है। भ्रमर पुष्प-पराग का रसास्वादन करता है, परन्तु यह सम्बन्ध या अव्यवधान कृत्रिम है। हाँ, यदि पुष्प में ही अपने सौगन्ध्य या परागरसास्वादन की शक्ति हो, तब ही पूर्ण भोग या रसास्वादन बन सकता है, परन्तु यहाँ तो परमानन्द रसामृत मूर्ति भगवान श्रीकृष्ण ही अपने माधुर्य (माधुर्याधिष्ठात्री श्रीवृषभानुकिशोरी) का आस्वादन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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