भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
करुणालहरी
हे नाथ! विषमविषसम्पृक्त अग्निमय तैल-परिपूर्ण कटाह के समान इस विषादभूमि भवसागर में पड़कर मुझे आत्मत्राण का कोई भी उपाय नहीं सूझता। हे विभो! अब मैं सब ओर से हताश होकर अपने-आपको आपके श्रीचरणों में समर्पण करता हूँ। हे शरण्य! इस भवानल ज्वाला से मेरी चेतना या विवेकबुद्धि विलुप्त हो गयी है। नाथ! मैं अत्यन्त भयभीत होकर आपकी शरण आया हूँ, अतः मेरी अपेक्षा न होनी चाहिये। दयासुधाम्बुधे! मेरी दयनीयता और अपने स्वरूप पर फिर से विचार करें और फिर जैसा चाहें वैसा करें- “भवानलज्वालविलुप्तचेतनः शरण्य तेऽङ्घ्रि शरणं भयादयाम्। हे हरे! वेद वाक्यों के भी अविषय पूर्णतम पुरुषोत्तम आप महेश्वर को छोड़कर मेरी साध्वी मति निर्लज्ज होकर कैसे दूसरी ओर जा सकती है? दयानिधे! सभी से परित्यवत, दुरवस्था को प्राप्त मुझ अतिदीन को देखकर भी आपने चित्त को क्यों कुलिश निष्ठुर बना लिया है? “अपि दीनतरं दयानिधे दुरवस्थं सकलैः समुज्झितम्। “न वदामि न दुष्कृतं मया कृतमित्युक्तिमिमां तु मे श्रृणु। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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