भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
करुणालहरी
कृपानिधे! यदि मुझ सरीखे पापियों पर कृपा की जाय तो आप ही सोचियै कितनी कीर्ति होगी? जो बालक शैशवावस्था में लालित किया गया है, बड़ा होने पर उसी की ताड़ना उचित है। परन्तु आपने तो मेरा कभी भी लालन नहीं किया। फिर मेरी ताड़ना क्यों? अथवा भगवन! मेरा ही दोष है, मैं ही दूषित हूँ, व्यर्थ ही आपको उपालम्भ देता हूँ। जैसे रमणी के विरह ज्वर से ज्वलित कुमति प्राणी अमृतांशु की निन्दा करता है, वैसे ही मैं अपने ही दोष से आपको उपालम्भ देता हूँ। प्रभो! मैं अत्यन्त नम्रता से पूछता हूँ जरा अच्छी तरह विचार कर इसका उत्तर मुझे दें। मैं क्या गजेन्द्र और गोवर्धन पर्वत से भी अधिकतर गुरु (भारी) हूँ, जो आप शीघ्रता से मेरा उद्धरण नहीं करते?- “नितरां विनयेन पृच्छ्यते सुविचार्योत्तरमत्र यच्छ मे। “अयमत्यधमोऽपि निर्गुणे दयनीयो भवता दयानिधे। हे हरे! यद्यपि मुझ क्षुधातुर को प्रतिरथ्याओं (हर एक गलियों) में कण-कण के प्रतिग्रह में भी लज्जा नहीं है, तथापि हे निष्कलंक! यह आपके लिये यशस्कर न होगा कि आपका होकर भी मैं दूसरों के दरवाजों पर भटकूँ?- “क्षुधितस्य न हि त्रपाऽस्ति मे प्रतिरथ्यं प्रतिगृह्लतः कणान्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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