भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
साधारण अब्रह्मवित् पुरुषों को अनवच्छिन्न ब्रह्मात्मक रस की प्राप्ति तो होती नहींं, अतः यथायोग्य ही सम्बन्ध लगाना चाहिये। “रसो वे सः”, ‘रसो ह्येव’ इन दोनों श्रुतियों में अनवच्छिन्न स्थायी अवच्छिन्न भग्नावरण चिदात्मक पारिभाषिक तदंशभूत ही रस लिया जाता है। द्रवत्व स्थायी-भावानपेक्ष महावाक्य जन्य अपरोक्ष ब्रह्माकारवृत्ति में आवरण भंग से अनवच्छिन्न ब्रह्मरूप से ही रस का लाभ होता है। इसी तरह कान्ताद्यवच्छिन्नरूप से उपादान ब्रह्मचैतन्य की भी स्थायी भावापत्ति होने पर पारिभाषिकावच्छिन्न रस का लाभ होता है। इसलिये उत्तर मीमांसा में रसशास्त्रगतार्थ नहींं, किन्तु स्थायीभावादि विशिष्ट रस के प्रतिपादन के लिये रसशास्त्र पृथक अपेक्षित है। ‘भक्ति रसायन’ का आस्वादन कराया जा चुका है। इसके रचयिता श्रीस्वामीमधुसूदन सरस्वती जी के सम्बन्ध में भी कुछ जान लेना चाहिये। ऐसा कोई ग्रन्थ अपेक्षित था, जिसमें ब्रह्मवाद के अनुरोध से ही भक्ति तत्त्व का वर्णन किया गया हो। इसी न्यूनता की पूर्ति श्रीमधुसूदन सरस्वती ने ‘भगवद्भक्ति रसायन’ बनाकर की। इनका जन्म पूर्व बंगाल में फरीदपुर के पास कोटालीपाड़ा ग्राम में श्रीरामचन्द्र भट्टाचार्य के वंश में हुआ था। इनके पिता का नाम पुरन्दर मिश्र और इनका नाम कमलनयन था। इन्होंने नवद्वीप में श्रीहरिराम तर्कवागीश से न्यायशास्त्र का अध्ययन किया था। श्रीविश्वेश्वर सरस्वती से संन्यास दीक्षा ग्रहण कर बहुत दिन तक काशी में निवास किया था। श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी की रामायण की प्रतिष्ठा विद्वानों में नहीं हो रही थी। किसी विद्वान ने उन्हें सलाह दी कि यदि श्रीमधुसूदन सरस्वती इस ग्रन्थ की प्रतिष्ठा करें, तो सभी विद्वान आपकी रामायण का आदर करेंगे। श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने अपनी रामायण श्रीमधुसूदन सरस्वती के पास भेज दी। छ महीने तक जब रामायण नहींं लौटी, तब श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने अपना शिष्य रामायण ले आने के लिये भेजा। श्रीमधुसूदन सरस्वती ने ग्रन्थ का अभिनन्दन करते हुए ऊपर निम्नलिखित श्लोक लिख दिया-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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