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अध्यस्त पदार्थ की अधिष्ठान-ज्ञान से निवृत्ति होता है, इससे सिद्ध हुआ कि श्रद्धा मानकवों भगवद्रूप ही अवशेष रहता है। अध्यस्त पदार्थ की अधिष्ठान-ज्ञान से निवृत्त होती है। इससे सिद्ध हुआ कि विषयविषयक सभी प्रेम भगवान में ही पर्यवसित होते हैं।
भगवत्प्रेम प्राप्त करने के लिये साधक को क्रमशः महापुरुषों की सेवा, उनके धर्म में श्रद्धा, भगवद्गुणश्रवण में रति, स्वरूपप्राप्ति, प्रेमवृद्धि, भगवत्स्फूर्ति और भगवद्धर्मनिष्ठा आदि अपेक्षित होती है।
आत्माराम, आप्तकाल, पूर्णकाम, परमनिष्काम, महामुनीन्द्र भी भगवान को भजते हैं-
- “आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
- कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थंभूतगुणो हरिः।।”
कहा जा सकता है कि सर्वाधिष्ठान प्रत्यक्चैतन्याभिन्न परब्रह्म के साक्षात्कार द्वारा सभी प्रकार के भेदों के मिट जाने पर जिनका चित्त आनन्द से ही परिपूर्ण है, उन्हें अपने से भिन्न भगवान की स्फूर्ति नहीं हो सकती। राग की तो उनमें सम्भावना ही नहीं, फिर भक्ति तो अत्यन्त असम्भव है। परन्तु यह ठीक नहीं, क्योंकि उन्हें स्वारसिक प्रेम से भेद का आहार्यज्ञान होता है (बाधकालिक इच्छाजन्यज्ञान आहार्यज्ञान कहा जाता है)। आहार्यज्ञान द्वारा राग एवं भक्ति हो सकती है। “त्रिपुर सुन्दरी रहस्य” में बतलाया गया है कि भक्त लोग प्रत्यक्चैतन्याभिन्न परब्रह्म को जानकर अतिशयप्रीति से अभिसन्धिविहीन होकर आहार्यज्ञान द्वारा भेदभाव की कल्पन करके अत्यन्त तत्परता से स्वभावतः भगवान में स्वारसिकी भक्ति करते हैं-
- “यत्सुभक्तैरतिशयप्रीत्या कैतववर्जनात्।
- स्वभावस्य स्वरसतो ज्ञात्वापि स्वाद्वयं पदम्।
- विभेदभावमाहृत्य सेव्यतेऽत्यन्ततत्परैः।।”
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