भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
भगवद्धृदयस्थ पूर्णानुराग रससारसागर-समुद्भूत, निर्मल, निष्कलंक चन्द्रस्वरूपिणी श्रीवृषभानुनन्दिनी राधारानी एवं श्रीराधारानी के हृदय में विराजमान श्रीकृष्णविषयक प्रेमरससारसागर रससमुद्भूत चन्द्ररूप व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण हैं। अतः यहाँ प्रेम सदानन्दैकरसस्वरूप है, क्योंकि विषय-आश्रय दोनों ही रसस्वरूप हैं, जबकि अन्यत्र विषय-आश्रय आदि विजातीय होते हैं, रसस्वरूप नहीं। इसी तरह भगवान की लीला, लीला करने का स्थान, लीलापरिकर और उद्दीपनादि सामग्री भी रसस्वरूप ही है। सच्चिदानन्द रससारसरोवरसमुद्भूत सरोज, केशर, पराग एवं मकरन्दस्वरूप व्रज, व्रजसीमन्तिनी, श्रीकृष्ण एवं उनकी प्रेयसी श्रीवृषभानुनन्दिनी राधारानी सभी रसात्मक ही सिद्ध होते हैं-
इत्यादि वचन इसमें प्रमाण हैं। यह सारी बातें ब्रह्मवाद में ही बन सकती हैं, इसलिये ब्रह्मवित्तम श्रीमधुसूदन सरस्वती ने ‘भक्तिरसायन’ ब्रह्मवाद के अनुरोध से ही बनाया है। भक्तिरसामृत के रसिक अन्य महानुभावों ने भी कहा है कि मुक्त मुनि जिस फल को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते परेशान रहते हैं, उसी को देवकी ने फला, यशोदा ने उसी का पालन किया तथा गोपियों ने यथेष्ट उसका उपभोग किया। यशोदा की मंगलमय गोद में नील कमल के समान चिदानन्दसरोवर से श्याम तेज प्रकट हुआ। अन्य भक्त कहते हैं- वह ऐसा फल था, जिसका भृंगों ने आघ्राण नहीं किया, वायु ने जिसका सौगन्ध्य नहीं उड़ाया, जो जल में उत्पन्न नहीं हुआ, लहरियों के कण से जो टकराया नहीं और कभी किसी ने जिसे कहीं देखा नहीं। एक भक्त कहता है- निगम वन में फल ढूँढ़ते-ढूँढ़ते यदि नितान्त खेदयुक्त हो गये हों, तो इस उपदेश को सुनें- उपनिषदों के परम तात्पर्य का विषय प्रत्यक्चैतन्याभिन्न परब्रह्म गोपियों के घर में उलूखल से बँधा पड़ा है। दूसरा भक्त कहता है- सखि! एक कौतुक की बात सुनो, श्रीमन्नन्दराय के प्रांगण में धूलधूसरित होकर वेदान्तसिद्धान्त थेई-थेई करके नृत्य करता हुआ मेरे द्वारा देखा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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