भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
ज्ञानियों में भी प्रारब्ध कर्म अवशिष्ट रहने के कारण दृश्य द्वैतदर्शनकाल में शुद्धचिदात्मतत्त्व की पूर्ण रसात्मकता का अनुभव और निरतिशय प्रेम नहीं व्यक्त होता। इसीलिये सविशेष साकार स्वजनरूप से प्रकट परमात्मतत्त्व में शुद्ध भक्ति, प्रीति की अपेक्षा होती है। इसलिये ही ज्ञानी महानुभावों का भी भगवान के मधुर चरित्रों और मंगलमयीमूर्ति में आकपर्षण होता है, परन्तु इतने से उनकी ज्ञाननिष्ठा या निर्गुण सिद्धान्त से प्रच्युति मान लेना केवल बालकपन है। “सियहिं बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी।।”
इत्यादि वचनों का भी यही तात्पर्य है कि केवल अन्तःकरण से अनुभूत निर्गुणब्रह्म की अपेक्षा दिव्यलीलाशक्तियुक्त ब्रह्म में विशिष्टसरसता की अनुभूति होती है। जैसे आदित्य मण्डल का कोई केवल नेत्र से अनुभव करता है, परन्तु कोई दूर-वीक्षण यन्त्रोपहित नेत्रों से उसी आदित्य का अनुभव करता है। प्रथम अनुभव से दूसरे अनुभव में जैसे विशेषता होती है, वैसे ही केवल अन्तःकरण से तत्त्वानुभव की अपेक्षा दिव्यलीला शक्तियुक्त ब्रह्मतत्त्व में विशिष्टमाधुर्य का अनुभव होता है; परन्तु सर्वोपाधिविनिर्मुक्त ब्रह्मभावापन्न मुक्त को तो अभेदेन अनन्त, अखण्डरसात्मक वस्तु की अनुभूति होती है। विवेकियों का कहना है कि यदि पुष्प में घ्राणशक्ति हो तब ही पुष्प के मनोरम सौगन्ध्य का पूर्णरूप से आस्वादन किया जा सकता है। इस दृष्टि से अत्यन्त अभेद में ही अनन्तरस की अनुभूति होती है। फिर भी जीवन्मुक्तकाल में अन्तःकरणादि उपाधियाँ विद्यमान ही रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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