भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
श्रीव्रजांगनाओं ने भगवद्विप्रयोगाग्नि से स्थूल, सूक्ष्म, कारण तीनों शरीर, अन्नमयादि पाँचों कोशों को जलाकर विशुद्ध परमानन्दरसात्मकब्रह्म को प्राप्त कर लिया। भक्ति के कुछ लक्षण सगुण, निर्गुण में साधारण है। कुछ सगुण भक्ति में ही पर्यवसित होते हैं। ज्ञानी को निर्गुण परब्रह्म में तो स्वाभाविकी भक्ति होती ही है, साथ ही सगुण भक्ति भी होती है। इसी आशय से कहा गया है-
कुन्ती का कहना है कि हे देव! आप अमलात्मा परमहंस महामुनीन्द्रों को भक्ति-योगविधान करने के लिये सगुण, साकार स्वरूप ग्रहण करते हैं। यद्यपि निर्गुण, निराकार, निर्विकार स्वरूप समस्त प्राणियों के निरतिशय, निरुपाधिक पर-प्रेम का आस्पद है, तथापि अनादि महामाया के प्रभाव से उसकी परमानन्दरसरूपता परप्रेमास्पदता तिरोहित-सी है। जैसे मधुर मिश्री भी पित्तदोषोपहृत रसनावाले प्राणी को कटु प्रतीत होती है, वैसे ही निरतिशय, निरुपाधिक परप्रेमास्पद प्रत्यक्चैतन्याभिन्न निर्गुणब्रह्म में प्रेम की कमी भासित होती है। इसीलिये विवेकी लोग यह चाहते हैं कि जैसे, अविवेकियों को विषयों में, कामुक को कामिनी में उत्कट प्रेम होता है, वैसे ही भगवान में मन की आसक्ति हो। इसीलिये कहा गया है कि-
कोटि-कोटि मुक्त-सिद्धों में भी नारायण-परायण दुर्लभ हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज