भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
श्रीशंकराचार्य भगवान ने निर्गुण ब्रह्म के प्रति कहा है-
“हे देव! आप उदासीन, अनमन स्वभाव, कूटस्थ, निर्गुण, संगरहित हमारे तात-पिता हैं। फिर मेरी क्या गति है? देव! यदि आप हम पर निष्प्रयोजन स्नेह नहीं करते तो भी हमारा हृदय आपका भवन है, वहाँ आप निवास तो कीजिये।” इस तरह के स्तवन से सिद्ध होता है कि निर्गुण में दया, कृपारूप गुणों का अस्तित्व नहीं होता। अत: माया-मोह की निवृत्ति के लिये भगवान की माया का वर्णन युक्त है- “मायां वर्णयतोऽमुष्य ईश्वरस्यानुमोदतः। श्रद्धया श्रृण्वतो राजन् माययात्मा न मुह्यति।।” भगवान की माया को श्रद्धा से वर्णन, श्रवण, अनुमोदन करने वाले पुरुष की आत्मा माया से मोहित नहीं होती। यहाँ भगवदीयत्वेन भगवद्वशीभूता माया का वर्णन होता है। इसीलिये माया-मोह से मुक्ति मिलती है, उसी तरह भगवत्सापेक्ष भगवदीयसत्त्व के वर्णन से सत्त्व से ज्ञान द्वारा गुणों की निवृत्ति “कण्टकेन कण्टकोद्धारः” न्याय से प्राप्त होती है। इस तरह सगुणोपासना में सरलता होती है और कृपा का अवकाश रहता है। तथापि जैसे भगवत्कृपा से भी भक्तिकृपा का महत्त्व अधिक समझा जाता है, वैसे ही निर्गुणोपासना ही स्वयं कृपा कर प्राणी का कल्याण कर सकती है और सगुण भगवान ही अपने निर्गुणस्वरूप के उपासक पर पूर्ण कृपा करते हैं। फिर देहाभिमान मिटने पर निर्गुणोपासना भी सरलता से हो सकेगी, जैसे “तयोस्तु कर्मसंन्यासात् कर्मयोगी विशिष्यते” इस वचन से कर्मसंन्यास से कर्मयोग का श्रेष्ठ होना सम्भव है, वैसे ही निर्गुणोपासना से सगुणोपासना का श्रेष्ठ कहना युक्त है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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