भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
निर्गुणोपासना के संस्कार बने रहने से वेदान्त-श्रवण-मननादि द्वारा तत्त्व-साक्षात्कार में भी सुविधा रहती है। कारण, निरालम्ब या निर्विकल्पालम्ब मन का ही ब्रह्म साक्षात्कार में अधिक उपयोग है। यह सब होते हुए भी निर्गुणोपासना देहाभिमानियों के लिये अत्यन्त कठिन है। वायु को बाँधना या भाद्रपद के अखण्ड गंगा प्रवाह को रोक देना जैसे कठिन है। वैसे ही प्रपंचोन्मुख वृत्तिप्रवाह को निरुद्ध करके निर्विकल्प निर्दिश्य ब्रह्माक्रारवृत्ति बनानी भी कठिन है। यह तो पूर्ण वैराग्यविवेक-सम्पन्न पुरुष ही का विषय है। इसीलिये कहा गया है- “अत्यन्तवैराग्यवतः समाधिः समाहितस्यैव दृढः प्रबोधः” यद्यपि कठिन सगुणोपासना भी है, उसमें भी तो वाह्य विषयों से मन का प्रत्यावर्तन करके भगवत्स्वरूप में ही लगाना पड़ता है, फिर भी वह निर्गुणोपासना की अपेक्षा सरल है। कारण भगवान के मंगलमय नाम, उनके परम पवित्र चरित्र के अभ्यास से भगवान की मधुर मनोहर मंगलमय मूर्ति मन में व्यक्त हो सकती है। फिर प्रेम से तदाकाराकारितवृत्तिप्रवाहरूप उपासना भी बन सकती है। भगवच्चरित्रादि की मधुरता से कभी-कभी प्राणियों की राग से भी प्रवृति हो जाती है। इस तरह सगुणोपासना में सरलता और निर्गुणोपासना में कठिनता है। इसलिये सगुणोपासना श्रेष्ठ है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि जब निर्गुणोपासना का फल बड़ा है फिर भले ही वह कठिन हो, वही श्रेष्ठ है। बड़े फल के लिये कठिन परिश्रम-अधिकतर क्लेश, उसके अपकर्ष का कारण नहीं हो सकता। बड़े फल के लिये अधिक क्लेश होना युक्त ही है। सगुणोपासना सरल होने पर भी उसका फल ब्रह्मलोकादि है, जो कि एक तरह संसार ही है। वहाँ अविद्या तत्कार्यात्मक प्रपंच की आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं होती। निर्गुणोपासना से निरावरण ब्रह्म का साक्षात्कार और तदात्मनावस्थान होता है, फिर निर्गुणोपासना से सगुणोपासना कैसे श्रेष्ठ हुई? इसका उत्तर यह है कि सगुणोपासना सरल है, साथ ही उससे अन्तरात्मा की शुद्धि, विवेक, वैराग्यादि की प्राप्ति और श्रवणादिक्रमेण ब्रह्म-साक्षात्कार की प्राप्ति और श्रवणादि भी हो जाता है। अथवा यहाँ भगवान की कृपा से ही तत्त्व साक्षात्कार और कैवल्य प्राप्त हो जाता है। भगवदुपासना से भगवत्कृपा, उससे ज्ञान योग्यता प्राप्त हीने पर तो एक ही महावाक्य से तत्त्व साक्षात्कार हो जाता है। यह बात स्वयं भगवान ने मानी है कि जो लोग सर्वदा समाहित होकर प्रीतिपूर्वक मेरा भजन करते हैं उन्हें मैं वह बुद्धियोग (ज्ञानयोग) देता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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