भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
कहा भी है-“यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते” अर्थात ज्ञाननिष्ठों को जो निर्गुण ब्रह्मपद प्राप्त होता है, योगों को भी अर्थात निर्गुण ब्रह्मोपासकों को भी साक्षात्कारक्रमेण वही पद प्राप्त होता है। निर्गुणोपासना की महिमा से भी निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार माना जाता है। फिर भी वह विधुरपरिभावित कामिनी साक्षात्कार के समान भ्रमात्मक नहीं होता, किन्तु प्रमाणसंवादी होने से प्रमात्मक ही होता है। कुछ लोग गन्धर्वशास्त्राभ्यासजन्य संस्कारप्रचयसव्यपेक्ष मनःसंयुक्त श्रोत्र से पड्जत्वादिसाक्षात्कार के समान, या रत्न-परिचायकशास्त्राभ्यास-जन्यसंस्कार-संस्कृत मनःसव्यपेक्ष चक्षु से रत्न-साक्षात्कार के समान‚ वेदान्ताभ्यासजन्यसंस्कारप्रचयसव्यपेक्ष समाहित मन से ब्रह्म साक्षात्कार मानते हैं। हर तरह से निर्गुण ब्रह्मोपासना में कठिनाई है। किसी भी वस्तु का चिन्तन या तदाकाराकारित वृत्ति का प्रवाह तभी बन सकता है, जब उसकी प्रतीति हो। इधर हम देखते यह हैं कि मन में, शब्द, स्पर्श, रूप, रसादि कोई न कोई पदार्थ की स्फूर्ति अनिवार्य रूप से बनी रहती है, किसी भी दृश्य की स्फूर्ति रहते निर्विकल्प निर्दृश्य ब्रह्म की स्फूर्ति असम्भव है। यह एक उपासना का प्रकार है कि जैसे ‘आज एकादशी है’ इस शब्द के आधार पर प्राणी एकादशी व्रत रहते हैं और उसका चिन्तन करते हैं। फिर भी उसके किसी स्वरूप विशेष का बोध नहीं होता। वैसे ही ‘निर्गुण-निराकार निर्विकार ब्रह्म है’ ऐसा परोक्ष शब्दज्ञान के आधार पर स्वरूप-विशेष बिना समझे भी चिन्तनरूप उपासना बन सकती है। फिर भी ठीक उपासना तो तभी बन सकती है, जब निर्विकल्पवस्तु की स्फूर्ति हो। तब तदाकाराकारित वृत्तिसन्तान या धारा चलायी जा सकती है। अतः जैसे मृत्तिकादि मूर्त्त द्रव्यों का उत्सारण ही कूप-निर्माण है, किंवा घट से जलादि निष्कासन ही उसको आकाश से भरना है, वैसे ही चित्त से दृश्य विकल्प को निकालना ही उसे ब्रह्माकार बनाना है, और उसे ही निर्गुणोपासना कहा जाता है। इस निर्गुणोपासना का फल ब्रह्म साक्षात्कार, अविद्या तत्कार्यात्मकप्रपंच की निवृत्ति; तथा प्रत्यक्चैतन्याभिन्न ब्रह्मस्वरूप से अवस्थिति है। बस उसके अनन्तर कोई भी फल अभ्युदय या निःश्रेयस अवशिष्ट नहीं रहता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज