भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
संकल्पबल
ऊपर से देखने मे स्थूल जगत ही सब कुछ है परन्तु जब देखते हैं कि चींटी, चीड़िया, उष्ट्र, हाथी आदिकों के बड़े-बड़े देह सूक्ष्म विचार पर ही उठते, चलते, फिरते, बैठते हैं, तब यह कहने में कोई भी संकोच नहीं रह जाता है कि ब्रह्मादि स्तम्ब-पर्यन्त सभी प्राणियों की जो भी हलचलें है और उन हलचलों से जो भी कार्य संपन्न होते हैं, सब सूक्ष्म विचार, मन या वृद्धि के ही कार्य हैं। ‘यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभिनिष्पद्यते।’ पुरुष जैसा संकल्प करने लगता है वैसा ही कर्म करता है, जैसा कर्म करता है, वैसा ही बन जाता है। जिन बातों का प्राणी बार-बार विचार करता है, धीरे-धीरे वैसी ही इच्छा हो जाती हे, इच्छानुसारी कर्म और कर्मानुसारिणी गति होती है। अतः स्पष्ट है कि अच्छे कर्म करने के लिये अच्छे विचारों को लाना चाहिये। बुरे कर्मों को त्यागने से पहले बुरे विचारों को त्यागना चाहिए। जो बुरे विचारों का त्याग नहीं करता, वह कोटि-कोटि प्रयत्नों से भी बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता। कितने प्राणी दुराचार, दुर्विचारजन्य दुर्व्यसन आदि को छोड़ना चाहते हैं। मद्यपायी, वेश्यागामी व्यसन के कारण दुःखी होता है, व्यसन को छोड़ना चाहता है, उपाय भी ढूँढ़ता है, महात्माओं के पास रोता भी है, छोड़ने की प्रतिज्ञा भी कर लेता है, परन्तु जो सावधानी से मद्यपान, वेश्यागमन आदि दुराचारों का बराबर चिन्तन और मनन का परित्याग करता है, उनका स्मरण ही नहीं होने देता है, विचार आते ही उसे विचारान्तरों से काट देता है वह तो छुटकारा पा जाता है, परन्तु जो बुरे विचारों को न छोड़कर उनका रस लेता रहता है, वह कभी बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता, वह बार-बार भग्नप्रतिज्ञ होकर रोता है। |
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