भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
संकल्पबल
परमेश्वर की आराधना से जीवात्मा में स्वाभाविक परमात्म सम्बन्धी ऐश्वर्य प्रकट होते हैं, अन्यथा छिपे रहते हैं। सिद्ध, योगीन्द्र-मुनीन्द्र अपने से ही घट को पट और पट को घट बना सकते हैं। लौकिक महर्षियों का वचन अर्थानुसारी हुआ करता है, अर्थात जैसा अर्थ होता है। उनका वैसा ही वचन होता है, परन्तु सिद्ध प्राचीन महर्षियों के वचनों का अनुसरण तो अर्थ को ही करना पड़ता है, अर्थात वे अर्थ को जैसा कहते हैं, अर्थ को वैसा ही बनना पड़ता है। इसीलिये विश्वामित्र के संकल्प से मेनका अप्सरा को पहाड़ी बनना पड़ा। अगस्त्य के वचन से नहुष को अजगर बनना पड़ा था। संकल्प से ही विश्वामित्र ने बहुत से नक्षत्रों और वस्तुओं को बनाया था। वचन के साथ भी संकल्प रहता है। अत एव, वचन के प्रभाव के साथ संकल्प का प्रभाव रहता है। सुना जाता है, अमेरिका आदि में बहुत से मनोविज्ञान के अभ्यासी संकल्प या विचार से ही गुलाब के फूलों को घटाने या बढ़ाने में सफल हो जाते हैं। एलोपैथिक, होमियोपैथिक आदि चिकित्साओं से निराश रोगियों को मनोविज्ञान की महिमा से लाभान्वित करते हैं। एक मनोविज्ञान के पण्डित न जीवन से निराश किसी लड़की को कई दिवस तक बर्फ के भीतर रखकर मनोविज्ञान के बल से आराम पहुँचाया था। इसी तरह मन से ही बहुत रोगों से आराम हो रहे हैं। वैसे हर एक के मन में भी संकल्प की प्रधानता रहती है। कारण, सभी काम पहले मन या बुद्धि के साहाय्य की अपेक्षा रखते हैं, पश्चात किसी अन्य की सफलता में बुद्धि या सूझ का बड़ा हाथ रहता है। अच्छी सूझ से ही व्यापार में लाभ होता है। संग्राम जीतने में मन्त्रियों, सेनापतियों की उत्तम सूझ ही लाभदायक होती है। कितने स्थलों में नीति-निर्धारण की ही बुद्धिमानी या गलती से व्यक्ति या समाज ही नहीं, किन्तु राष्ट्र का राष्ट्र उन्नत या अवनत हो सकता है। विचार की गलती से ही कहीं-कहीं बड़े-बड़े विजयी लोग एकदम पतन के गर्त में चले जाते हैं। विचार की ही अच्छाई से कितने पथ-भ्रष्ट व्यक्तियों का अतर्कित काया पलट देखा जाता है। इसीलिये मानना पड़ता है कि स्थूलजगत किसी सूक्ष्म जगत के ही नियन्त्रण में रहते हैं। |
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