भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
जीवात्मा कृतकृत्य होकर कहता है- “अम्ब! आपके ही शुभानुसंधान से मैं कृतकृत्य हुआ हूँ। अब मैं यही चाहता हूँ कि आपके श्रीचरणों में मेरा सदा अटल श्रद्धा बनी रहे।” इस तरह प्रबुद्ध होकर भी जीवात्मा भक्ति देवी का प्रेमी है, फिर भक्ति का उत्कर्ष जितना ही कहा जाय उतना ही कम है। श्रीमद्भागवत के माहात्म्य में ज्ञान, वैराग्य को भक्ति महारानी का पुत्र कहा गया है और यह दिखाया गया है कि यह तीनों ही कलि के पाखण्ड से जर्जर एवं जीर्णशीर्ण हो गये थे। श्रीमद्वृन्दारण्यधाम के संसर्ग से श्रीभक्ति देवी तो नवीन स्वरूपा तरुणी हो गयी, परन्तु वहाँ ज्ञान, वैराग्य का कोई ग्राहक न था, अतः वे दोनों ज्यों-के-त्यों जीर्णशीर्ण क्षुत्क्षाम-शुष्क-कण्ठ होकर मूर्च्छितावस्था में ही पड़े रहे। श्रीभक्तिदेवी स्वयं नवीना, सुरूपिणी तरुणी होकर भी अपने पुत्रों की दुर्दशा देखकर खिन्न होकर सोच रही थी। उसका भाव यह था कि माता का जरठ होना उचित है, पुत्र का जरठत्व वार्धक्य अवश्य ही चिन्ताजनक है। कभी एक वृद्धा वैश्यानी स्त्री एक महात्मा से वरदान माँगने लगी- “महाराज! मैं तो यही माँगती हूँ कि मेरे बेटे, पोते मुझे कन्धे पर रखकर जला आयें।” महात्मा ने कहा कि “जीते ही या मरने पर?” सारांश यह कि कल्याणमयी, करुणामयी, पुत्रवत्सला अम्बा यही चाहती है कि “मेरे सामने मेरे बेटे-पोते बने रहें, मरें नहीं, किन्तु मैं ही उनके सामने मर जाऊँ।” बेटे-पोते की बीमारी को माँ अपने ऊपर बुलाती है। ठीक इसी तरह भक्ति माता को भी अपने पुत्र ज्ञान, वैराग्य की बुद्धि में ही शान्ति-संतोष होता है। वह उनका अनिष्ट नहीं देख सकती, उनके सामने अपना निधन चाहती है। माता पहले तो पुत्र बिना अपने को वन्ध्या समझती है, अपना जीवन व्यर्थ समझती है, पुत्र-जन्म के लिये तरह-तरह के देवी-देवताओं का मनाती है। पुत्र के गर्भ में आते ही हर्ष के मारे फूली नहीं समाती, गर्भस्थ बालक के हस्त, पादादि उत्क्षेपण से कष्ट होने पर भी उसे अपराध नहीं मानती, अब पुत्र बड़ा हो गया यह समझकर प्रसन्न होती है। पुत्र की उत्पत्ति में प्राणान्त कष्ट सहन कर भी आनन्द में विभोर रहती है। स्वयं गीले में रहकर बालक को सूखे में रखती है। मल, मूत्रादि अपने ऊपर लेती है। माँ का हृदय कितना उदार होता है, वह पुत्र के लिये क्या-क्या नहीं करती है? ठीक इसी तरह ज्ञान वैराग्यरूप पुत्रोत्पत्ति के बिना भक्ति अपने को वन्ध्या मानती है और उसकी उत्पत्ति के लिये लालायित रहकर देवी-देवता मनाती है। फिर लालन-पालन कर बड़ा करती है, उनकी जीर्णता-शीर्णता में वह फिर चिन्तित और खिन्न होती है। उनकी मूर्च्छा और जीर्णता-शीर्णता मिटाने के लिये फिर महात्माओं की शरण जाकर उपाय चाहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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