भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
श्रीकृष्ण की सेवा सदा करनी चाहिये, वह सेवा भी मानसी ही मुख्या है। अब प्रश्न होता है कि, हस्त-पादादि से तो सेवा परिचर्य्या बन सकती है, परन्तु मानसी सेवा कैसे हो? इस पर महानुभावों ने कहा है- “चेतस्तत्प्रवणं सेवा।” अर्थात चित्त की श्रीकृष्णोन्मुखता ही सेवा है अर्थात भगवान की ओर भगवत्स्वरूपा-काराकारित मनोवृत्तिप्रवाह ही भगवान की मानसी सेवा है। बस, उसी की सिद्धि के लिये तनुजा, वित्तजा उभय प्रकार की सेवा अपेक्षित होती है। ‘तत्सिद्वयै तनुवित्तजा’। इस तरह मनोवृत्ति प्रवाह भी सेवा ही है। सारांश यह हुआ कि, सेव्याकार-मानसी-वृत्ति ही सेव्य की सेवा है। यहाँ पर भी कुछ महानुभाव आनुकूल्येन कृष्णाकारावृत्ति (कृष्णानुस्मरण) को भक्ति कहते हैं। कुछ कृष्णाकारावृत्ति मात्र को भक्ति या सेवा मानते हैं। वह आनुकूल्यन किंवा प्रातिकूल्येन चाहे जैसी ही हो। जब सेव्याकार वृत्ति भक्ति है और सेव्य निर्गुण, निराकार, निर्विकार है तो निर्गुण, निराकार, निर्विकार ब्रह्माकाराकारित वृत्ति ही भक्ति हुई। फिर वह चाहे वस्तु और प्रमाण परतन्त्र ज्ञानरूपा हो, चाहे पुरुषतन्त्र उपासनारूपा हो। निर्गुण, निराकार, निर्विकार परब्रह्माकाराकारित वृत्ति अवश्य ही भक्ति पद से कही जा सकती है। अत:- “भजति विषयाकारतां प्राप्नोति-इति भक्तिर्ज्ञानम्।” इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी विषयाकारता को भजने वाला ज्ञान भक्ति पद का अर्थ होता है। इस पक्ष में “भक्त्या मामभिजानाति” इस स्थल में भक्ति पद से ज्ञान लक्षणा चतुर्थी भक्ति ही विवक्षित है। आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी चार प्रकार के भक्त होते हैं और उनकी भक्ति चार ही तरह की होती है। ज्ञानी की भक्ति ज्ञानरूपा ही है, ज्ञानी की दृष्टि में प्रत्यक्चैतन्याभिन्न भगवान से भिन्न दूसरी वस्तु न हुई, न है और न होगी। अतः उसकी एकमात्र प्रीति भगवान में ही है। इस तरह वह इतरों से विशिष्ट है। भगवान उसे अपना आत्मा ही मानते हैं- “ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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